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________________ २०४ कर ते अतिथिं संबिभाग छे, जे श्रावकमात्रे करवं जोईए ॥९१॥ जेओ भक्तपुरुष छे, तेओए मुश्केलीथी छे अंत जेनो एवा संसारनो नाश करवाने माटे विनयपूर्वक चार प्रकारनो प्रामुक आहार मुनि, आर्जिका अने श्रावक, श्राविकाने दररोज आप्या करखो जोइए ॥ ९२ ॥ मुनिने दान आपती वखते श्रावके दातारना श्रद्धादिक सातगुण सहित नवधा भक्तिपूर्वक प्रीति साथे वर्तवू जोइए. केमके भक्तिविना आपेलं दान फलदायक नथी ॥ ९३ ॥ ___ आ बार व्रतोने पाळवावाळा बुद्धिमान सत्पुरुषोए कोई वखते अनिवार्य मरणकाल आवे, तो पोताना कुटुंबीओने पूछीने सल्लेसना ( सन्यासपूर्वक मरण) धारण कर जोइए, केमके सज्जन पुरुष समयानुसार कार्य करेज छे ॥ ९४ ॥ मरण वखते गुरुनी सन्मुख ज्ञान सहित दर्शन अने चारित्रने शुद्ध करवावाळा चतुर पुरुषे सघळा दोषोनी आलोचना करीने चार प्रकारनो आहार अने शरीरथी रागभाव छोडी देवो जोइए ॥ ९५ ॥ जे पुरुष कषाय, निदान अने मिध्यात्व रहित थईने सन्यासविधिने धारण करीने मरण करेछे, ते मनुष्य देवलोकनुं सुख भोगवीने २१ भवनी अंदर मोक्षपदने प्राप्त थाय छे ॥ ९६ ॥ आ प्रमाणे श्रावकनां बार व्रत जिनेंद्र भगवाने कह्यां छे, माटे जे कोई संसारसागरमां पडवाना भयथी डरवावाळा एने धारण करेछे, ते सघळा प्रकारना कल्याणने प्राप्त थाय छे ॥ ९७ ॥ ए सिवाय जितेंद्रियवृत्ति श्रावक छे, ते भ्रमर, नेत्र, हुंकार, हाथनी
SR No.022328
Book TitleDharmpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarlal Karsandas Kapadia
PublisherMulchand Karsandas Kapadia
Publication Year1910
Total Pages244
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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