Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia
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जे शास्त्र द्वेष, राग, मद, मत्सर, मूर्छा, क्रोध, लोभ भयादिकने नष्ट करवामां समर्थ छे अने मोक्षरूपी घरनो मार्ग बताववावाळां छे, ते शास्त्र अक्षयसुखनी प्राप्तिने माटे मुनिओने अवश्य आपवां जोइए ॥ ३६॥ शास्त्रनो स्वाध्याय करवाथी विवेक थाय छे. विवेकथी अशुभ कर्मोनो नाश थाय छे. अने कर्मोनो नाश थवाथी मोक्षपदनी प्राप्ति थाथ छे, ए कारणथी अनर्थोने नष्ट करवावाळां शास्त्रो पण मु. निने अवश्य आपवां जोइए ॥ ३७॥ जे दानमां जीवोने पिडा न थाय, जेना प्रभावथी यति विषयरूपी वेरीने वश न थाय अने पापोने नाश करनारा तपनी वृद्धि थाय, तेज दान सुखने आपवावाळु अने श्रेष्ठ कहेलुं छे ॥ ३८ ॥
ए सिवाय रत्नत्रयधर्मने वधारनारां बीजां पण निर्दोष दान, शील, संयम, दया, जितेंद्रियतानुं घर अने परिग्रहरहित उत्तम पात्रने आप, योग्य छे ॥ ३९ ॥ घर कुटुंब विगेरेथी दूषित पात्रपुरुषो घरकुटुंब वगेरेमा रहेवावाळा दानीने वांछित सुख कदापि आपी शकता नथी. ते नीतिज छे के, समुद्रमा पथ्यर पथ्थरने तरावी शकता नथी ॥ ४०॥ ___ चतुर पुरुषोए मोठेथी मीठी मीठी वातो करवावाळी, मनमां दुष्टता राखवादाळी, सर्वे प्रकारे नीच, सेंकडो व्यभिचारीओ द्वारा मर्दन करेली अने अशुभ लेश्यायुक्त वेश्याने कदापि सेववी जोइए नहि ॥ ४१ ॥ जे मनथी एकने चाहेछे, वचनथी बीजाने प्यार बतावे छे, अने तनथी कोई त्रीजानेज सेवन करे छे. एवी नवा नवा पुरुषोने चाहनारी वेश्या केवी रीते मुखी थई शके ?

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