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बताईं छु, एम कहीने तेणे पवनवेग सहित श्वेतांबरनो वेष धारण कर्यो अने ॥ २१॥ पटना नगरमां छठे दरवाजेथी प्रवेश करीने पाठशालामा जईने तरतज वाद सुचनानो घंट वगाडीने सोनाना सिंहासन उपर बेसी गयो ॥ २२ ॥ घटनो अवाज सांभळतांन ब्राह्मणोए आवीने मनोवेगने पूछयुं के-तुं कयुं शास्त्र माणे छ ? तारा गुरु कोण छे ? हमारी साथे कयो वाद करी शके छे ते कहे, कह्या वगरतो फक्त तारी सुंदरताज देखाय के ॥ २३ ॥ मनोवेगे कयु के - हुं कई जाणतो पण नथी अने मारो कोई गुरु पण नंथी. वादनुं नाम पण जाणतो नथी तो वाद करवानी शक्ति क्यांथी होय ? ॥ २४ ॥ हुं तो आहयां पहेलां नहि जोयलं ए, सोना, सिंहासन जोइने बेशी गयो, अने आ घंटनो अवाज सांभळवानी इच्छाथी वगाडी जोयुं छे ॥ २५ ॥ हमे शास्त्र ज्ञान रहित गोवालीयाना मूर्ख छोकरा छीए. कोई भयथी हमारी मेळेज तप ग्रहण करीने पृथ्वीमां भ्रमण करता फरीए छीए ॥ २६ ॥ ब्राह्मणोए कह्यु के- तमे कपा भयथी भयभीत थइ आवी युवावस्थामा तप ग्रहण कर्यु ते कृपा करीने कहो. हमने सांभळवानी घणी इच्छा छे ॥ २७ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यं के हमारा पीता आभीर देशना वृक्ष नामना गाममां घेटां पाब्वानो रोजगार करता रहे छे ॥ २८ ॥ एक दिवस घेटांनी रक्षा करनार हमारा नोकरने ताव आववाथी हमारा पीताए धेटांओंनी रक्षा करवाने माटे हमने बन्ने भाईओने मोकल्या तथा हमे बने वनमां गया ॥ २९ ॥ हमे ते वनमां मोटा उदयरूप कुटुंब समान शाखाओ सहित फळोथी नम्रीभूत एक कोतुंबाड जोयुं ॥ ३० ॥ तेने जाइने काठ खावानी इच्छाथी में आ भाईने कह्यु के - हे भाइ ! घेटांओनी रक्षा कर, हुं आ शाडनां कोठ