Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia

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Page 212
________________ १९२ तारा आपला भ्रांति वगरना जिनेंद्रवचनरुपी अमृतने पीधुं नहि ॥ ८८ ॥ हे मित्र! तें हमेशां कहेवा छतां पण में निर्दोष सम्यकत्वरुपी अमृतरुपी पानने छोडीने जन्मजरासृत्युने आपवावाळा महाभ्रमरुप कष्टथी छे अंत जेनो एवा मिथ्यात्वरुपी विषयूँ सेवन कर्यु ॥ ८९ ॥ हे मित्र! मारो तुंज बंधु छे, तुंज पिता छे. अने तुंज मारो कल्याणकारक गुरु छे. केमके तें मने संसाररुपी अंधकूपमां पडतां पोतानी उत्तम वाक्यरुपी रसीथी पकडी राख्यो छे ॥९०॥ जो तुं जिनेंद्र भगवान भाषित धर्मने बतावीने मने नहि रोकते तो हुं चिरकालसूधी महादुःखदायक वृक्षोवाळा अपार संसाररुपी बनमां भ्रमण करतो रहेते ॥ ९१ ॥ हे मित्र! हुं मिथ्यात्वमाहीनी, मिश्रमोहिनी, सम्यकत्वमोहिनी अने मिथ्यास्वरुपी अंधकारथी मोहित थईने कष्टथी छे अंत जेनो एवी पर वाक्यरुपी रात्रीने प्राप्त थई गयो हतो, माटे तेंज मने मोहरुपी अंधकारने नाश करवावाळा, जिनेंद्रसूर्यना वाक्यरुपी उज्जवलकिरणोथी उपदेश कर्यो छे ॥ ९२ ॥ हाय! हुं निराकुलरुप सिद्धिपुरीमा प्रवेश करावावाळा जिनेंद्र भाषित निर्दोष मार्गने छोडीने बहु वखतथी दुष्टोए बतावेला नर्कमां लइजवावाळा महा भयंकर मार्गमां लागी गयो! ॥ ९३ ॥ साधारणरीते मीवोने उत्तम घर स्त्री, पुत्र, सेवक, बन्धु, नगर अने गामोथी भरेली राज्यसंपदा जग्या जग्याए प्राप्त थई शके छे, परंतु पंडितार्थी पूजनीय निर्मल तत्वरुचिर्नु माळवं कठण छे ॥ ९४ ॥ हे मित्र! मूढपुरुषो जेनाथी दूषित थईने, बतावेला सधळा वस्तुस्वरुपने विपरीत जुए छे ते मिथ्यात्वनो नाश करीने तेंज मने अलभ्य निर्मल सम्यकत्व आप्युं छे. ॥ ९५ ॥ में हवे मिथ्यात्वरुपी विषनो त्याग करीने मनवचनकायथी

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