Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ रडे छे, चकर खाय छे, स्तुति करे छे, गाय छे तथा नाच करवा मंडी जाय छे ॥ ३७ ॥ मदिरा ए सघळा दोषोनुं मूल छे, माटे एनो हमेशां त्याग करवो जोइए ॥ ३८ ॥ ____ अनेक जीवोनी हिंसाथी उत्पन्न थयेलं मधमाखियोनुं जूठण, अने म्लेच्छ भीलोनी लाळोथी मळेलु महा पापदायक मध दयाळु पुरुषोए सर्वथा भक्षण करवा योग्य नथी ॥ ३९ ॥ अनेक जीवोथी भरेलां सात गामोने बाळी मूकवामां जेटलुं पाप लागे छे, तेटलुं पाप मधनुं एक टीपुं भक्षण करवाथी लागे छे ॥ ४० ॥ जे धर्मात्मा पुरुष होय छे, तेओ माखीयोए एक एक टी' लावीने भेगुं करेला उच्छिष्ट अपवित्र मधने कदी भक्षण करता नथी ॥ ४१ ॥ मद्य, मांस अने मधमां दरेकेन। रसानुसार जुदी जुदी जातना जीव थाय छे, ते सघळाने निर्दयी जीव भक्षण करे छे ॥ ४२ ॥ जे नीच पुरुष प्रत्यक्ष जीवोथी भरेला पांच प्रकारना वड, पीपल, ऊमर, पाकर, अने कहूंभर ( उदम्बर ) फल खाय छे. तेना चित्तमां दया क्याथी होई शके ? ॥ ४३ ॥ जेओ सात्त्विक जिनाज्ञाने पालवावाळा अने जीव हिंसाना त्यागी छे, तेओए पांच प्रकारना उदम्बर फल सर्वथा छोडी देवा जोइए ॥ ४४ ॥ सिवाय जीव उत्पत्तिना कारणभूत एवां कंद, मूल, फल, पुष्प, माखण अने अन्नादिक पण दयावान पुरुषोए छोडी देवां जोइए ॥ ४५ ॥ बीजु-स्वहितवांछक पुरुषोए काम, क्रोध, मद, द्वेष, लोभ, मोहादिकने वशीभूत थई पारकाने पीडाकारी वचन बोलवू छोडी देवू मोइए

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244