Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia

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Page 211
________________ १९१ हे मित्र ! आ असार संसारमा भ्रमण करता जीवीए सर्व प्रकारनी लन्ध प्राप्त करी, परंतु आ चारमाथी एकने पण प्राप्त करी नहि ॥ ७९ ॥ संसारमां देश, जाति, कुल, रुप, इन्द्रिओनी पूर्णता, नीरोगता, दीर्घ जीवन ए सघळा एकथी एक अधिक दुर्लभ छे. एनाथी पण वधारे दुर्लभ साचा' धर्मनो उपदेश सांभळयो तथा ग्रहण करो छे, परंतु एं सघळा प्राप्त थवां छतां पण संसाररूपी वृक्षने कापवावाळी कुहाडी अने सिद्धिरुपी महेलमा प्रवेश करवावाळी दोधिका ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान अने चारित्र ) बहु महेनते प्राप्त थाय छे ।। ८०-८१ ।। हे मित्र! मे कोई मतमां ने कई खरो उपदेश छे, ते सघळा जैनमनोज समजबो. केमके मोती अनेक जग्याए मळे छे, परंतु ते सघन समुद्रमांधीज नीकळेला होय छे ॥ ८२ ॥ जिनेंद्र भगवानना वचनो सिवाय कोईनुं पण वचन पापोनो नाश करवावालुं नथी, केमके सूर्यनाज प्रभावथी रात्रीना, अंधकारनो नाश थाय छे ॥ ८३ ॥ हे धान्यनो नाश करवावाळा तीड छे, ते प्रमाणे बीजा संचळा आदिभूत, पूजनीय जिनेंद्रधर्मने जडमूळथी नाश करवावाळा छे ॥ ८४ ॥ पवनवेगना मनमां जे मिध्यात्वरुपी गांठ हती, ते मनोवेगे पर्वतने वज्रसमान उपला वचनोथी ढीली करीने खोली नांखी, त्यारे नाश थई गयो छे मिध्यात्वरूपी पर्वत जेनो, एवो ते पवनवेग पश्चाताप साथे कहेवा लाग्यो के हाय! हाय! में नष्टबुद्धिए मारो जन्म वृथाज खोई दधो ॥ ८५-८६ ॥ हाय! में अज्ञानीए तारां वचन न सांभळीने जिनेंद्रना वचनरुपी रखोने छोडीने अन्यमतना वचनरुपी पत्थर ग्रहण कर्या ॥ ८७ || हे मित्र ! मिध्यात्वरूपी विषने पीत्रावाळा में ; मित्र ! जे प्रमाणे जेटला धर्म छे ते

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