Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia

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Page 214
________________ प्रकरण १० मुं. ज्यारे ते बन्ने मुनिनी पासे बेसी गया, त्यारे मुनिराज मनोवेगनी तरफ जाईने बोल्या केः-हे भाई ! शुं आ ज तमारो मननो प्यारो पवनवेग मित्र छ ? के जेने संसारसमुद्रथी तारनारो धर्म ग्रहण कराववानी इच्छाथी तमे महाविनय साथे केवली भगवानने उपाय पूछयो हतो ? ॥ १-२ ॥ आ सांभळीने मनोवेगे हाथ जोडीने कयुं के, हे महाराज ! ते पवनवेग आ ज छे. हवे ए व्रत ग्रहण करवानी इच्छाथी अहिंयां आव्यो छे. ॥ ३ ॥ हे साधु ! में एने पटना नगरमा लई जई ने अनेक प्रकारना दृष्टान्तोथी समजावीने मुक्तिरूपी घरमा प्रवेश करावनारुं सम्यक्त्व ग्रहण कराव्युं छे. ॥ ४ ॥ हे साधु ! छोडी दीधुंछे मिथ्यात्व जेणे एवो पवनवेग आ वखते जे रीते व्रतरूपी घरेणाथी भूषित थई जाय, एवो उपदेश आपो. ॥ ५ ॥ आ सांभळीने मुनिराजे कडं के, हे भाई ! परमात्मा अने गुरुनी साक्षीथी सम्यक्त्वपूर्वक श्रावकमां व्रत ग्रहण कर, केमके व्याप्रारीनो माफक साक्षीपूर्वक व्रत ग्रहण करवावाने भ्रष्टताने प्राप्त थतो नथी. ते माटे आ व्रत साक्षीपूर्वकज ग्रहण करवा योग्य छे. ॥६-७॥ जे प्रमाणे खेतरना क्यारामां पाणी विना रोपेलं अनाज फलीभूत थतुं नधी, ते प्रमाणे सम्यकत्व विना व्रत ग्रहण करवू पण सफल थतुं नथी ॥ ८॥ गहरी नीम सहित देवमंदिरनी माफक सम्यक्त्व सहित जीवोनुज दुर्धर व्रत निश्चल थाय छे. ॥ ९॥ जिनेंद्र भगवान भाषित जीव, अजिव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा अने मोक्ष ए

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