Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia
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१६९
ने स्वामिना समयमां थवावाळो रुद्र ? कईनुं कंईज जोडी दीधुं छे ॥ ९९ ॥ अने अहल्याना संयोगथी तो दीनवृत्ति इन्द्र नामनो विद्याधर दूषित थयो हतो, परंतु मूर्खोए निर्मल वृत्तिवाला सौधर्म स्वर्गना पति इन्द्रने भ्रष्ट थयला कही दीधुं छे, माटे एवं कदी नथी, केम के - देव अने मनुष्यनो संग कदापि थई शकतो नथी || १०० || अने सौधर्म स्वर्गना अधिपति महात्मा साथी बचारे छे लक्ष्मी जेनी एवा इन्द्रने 'रावणे जीती लीमा' आ प्रमाणे नष्टबुद्धिओए प्रसिद्ध कर्तुं छे, माटे आ कहेवुं कीडाए सिंहने जीती लीवो होय एवं छे ॥ १०१ ॥ इन्द्र नामना विद्याधरनी जग्याए स्वर्गपति इन्द्रदेवने जात्या कहे छे, ते ठीकज छे के विचारशून्य दुर्जन थाय छे, तेओ आ प्रमाणे महापुरुषोने कलंकित करने जगतां प्रसिद्ध करेछे ॥ १०२ ॥ जे विष्णु ( कृष्ण नारायण ) जगतना पूजनीय जगत्प्रसिद्ध महाबली ऋण खंडना अधिपति हता, तेमणे पोताना अर्जुननं सारथीपणुं अथवा दूतपणुं कर्यु कहे छे, ए केवुं आश्चर्य छे ? अने एवा महापुरुषने केवा कलंकीत कर्या छे ? || १०३ || माटे हे ब्रह्मणो ! ए सघळां पुराण, जगतना जीवोने चित्तमां भ्रम पैदाकरवावाळां अने असत्यार्थनो प्रकाश करवावाळां छे. आ प्रमाणे जाणीने अमितगति एटले अपरिमाण ज्ञानना धारक निर्मल चित्तवाळा पुरुषोए पोताना मनमां ए लौकिक पुराणोनो विश्वास राखवो जोइए नहि ॥ १०४ ॥
आ प्रमाणे श्री अमितगति आचार्यकृत धर्मपरिक्षा संस्कृत ग्रंथनी गुजराती भाषाठीकामां सोल प्रकरण पूर्ण थयुं ॥ १६ ॥
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