Book Title: Dharmpariksha
Author(s): Ishwarlal Karsandas Kapadia
Publisher: Mulchand Karsandas Kapadia
View full book text
________________
१६२
खाईने भानुं हुं ॥ ३१ ॥ ते घेटांओनी रक्षा माटे भाइना चाल्पा नवा पछी में ते कोठना झाडने बहु उंचुं जोइने विचार कर्यों के - ॥ ३२ ॥ आ झाडउपर तो हुं कोइ प्रकारे पण चढी शकतो नथी तो पछी केबी रीते कोठ खाइने मारी भूख मटाडुं ? ॥ ३३ ॥ पछी में ते कोठना झाडनीचे जइने विचार कर्यो तो कोइ उपाय सुज्यो नाह, त्यारे लाचार थइ मस्तक कापीने मारा सघळा प्राण सहित तेने कोठना झाडउपर फेंकी दीघुं ॥ ३४ ॥ मारा मस्तके जेम मेम कोठ खावां शरु कर्या, तेम तेम महा सुख करवावाळी तृप्ति आववा लागी एटले मारी भुख मटबा लागी, ॥ ३५ ॥ ज्यारे मारा मस्तके नीचे नजर करीने मारुं पेट पूर्ण भरलं मोयुं तो झाड उपरथी झट आवीने मारा धडउपर जोडाइने पहेलांनी माफक चोटी गयुं ते पछी हुं मारां घेटां जोवाने गयो ॥ ३६ ॥ ज्यारे हुं त्यां जइने जोऊं ह्युं तो मारो भाई एक जग्याए सूइ रह्यो छे, ने घेटांओनो कई पत्तो पण नथी ॥ ३७ ॥ में मारा भाइने ऊठाडीने पूछयुं तो तेणे कह्युं के हे भाइ ! मारा सूइ जवा पछी घेटां क्यां चाल्यां गयां ते मालुम नथी ॥ ३८ ॥ त्यारे में मारा भाइने कह्युं के - हवे आपणे घेटांओ गुमावीने घेर केवी रीते जइए ? पिताजी सांभळतांज कोप करशे अने आपण बँन्नेने बहु मारशे ॥ ३९ ॥ अने वेष वगर परदेशमां जइशुं तो पण भुखथी मरी जइशुं, ते माटे हे भाई ! आपणे बंने कोई वेष धारण करीए ॥ ४० ॥ आपणे आर्हआं लाकडी कमंडल सहित मुंडित मस्तकवाळा ने श्वेत वस्त्रवाला साधुओने भोजनादिकनुं मोटुं सुख छे ॥ ४१ ॥ आपणा कुळथी एवा श्वेतांबरी साधुओनीज भक्ति थती आबी छे माटे आपणे बंने तो श्वेत पटधारीज बनीए बीजा वेषनुं कई प्रयोजन नथी

Page Navigation
1 ... 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244