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१४ रति १५ स्वेद १६ खेद १७ निद्रा १८ ए अढार दोष सर्व साधारणने विशेष करीने दुःखनां कारण छे, माटे ते जुदा जुदा कहिए छीए ॥ ५२-५३ ॥ क्षुधारुपी अग्निथी तप्तायमान थईने मनुष्यनुं शरिर तुरतज सूकाइ जाय छे, तथा पांच इंद्रिओ पण पोतपोताना विषयोमां प्रवृत्ति करती नथी अने ॥ ५४ ॥ तृष्णाथी पीडित थवावाळानो विलास विभ्रम ( कटाक्ष ) हास्यसंभ्रम ( विनय ) कौतुक वगर सघळा तरतज नष्ट थइ जाय छे ॥ ५५ ॥ पवनथी खोलां सूकां पांतरांनी माफक भयथी सघळु शरिर कंपित थइने वचनशक्ति नष्ट थइ जाय छे अने सघळा विषय विपरीत देखाय छे-॥ ५६ ॥ जे पुरुष द्वेषी छे, ते विनाकारणज सघळाना दोषोने ग्रहण करे छे अने विना कारण गुस्से थइ जाय छे त्यारे ते नष्टबुद्धि क्रोधि थइ जाय छे अने कोई पण मानतो नथी॥ १७ ॥ जे नीच कामातुर होयछे, ते पंचेन्द्रिओना विषयोमा आसक्त थइ बीजा प्राणीओने पीडा करे छे तथा युक्त अयुक्तने कई पण जोता नथी॥ ५८ ॥ जेनी पाठळ मोहरुपी पिशाच लागी जाय छे, ते पुरुष मारी स्त्री, मारी पुत्री, मारुं धन, मारुं घर अने बांधव पण मारा छे, ए प्रमाणे करतां करतां मोहित थइ जायछे ॥ ५९॥जे पुरुष मद सहित छे ते दुराचारी, ज्ञान, जाति कुल, ऐश्वर्य, तप, रुप, बल बगेरेना गर्वथी सघळानो अनादर करवा लागी जाय छे ॥ ६० ॥ जे मनुष्य वातपित्त कफजनित रोगरुपी आग्निथी तप्तायमान थाय छे, ते शरिरद्वारा पराधिन थईने कदी सुखी थता नथी ॥ ६१ ॥ जे नर चिंतातुर होय छे, ते मित्र केम थशे, धन कम मळशे, पुत्र केम थशे, स्त्री कम थशे, मारी प्रसिद्धता केम थशे, अमुकनी साथे प्रीति केम थशे, ए प्रमाणे हमेशां आर्तध्यानमां मग्न थई दुःखीज रहे छे