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प्रकरण १४ मुं.
ए पछी मनोवेगे कह्यु के हे मित्र ! तने बीजां पण कौतुक बताईं छु, एम कहीने ऋषिनो वेश जे को हतो ते काढी नांख्यो ॥ १ ॥ ए पछी ते बन्नेए तपस्वीनो वेश बनावीने पटना नगरमां उत्तर तरफ प्रवेश कर्यो अने ॥ २ ॥ एक बीजी वादशालामां जईने घंट वगाडीने मनोवेग सोनाना सिंहासन उपर बेसी गयो. घंटनो अवाज सांभळतांज ब्राह्मणो आवीने बोल्या के-हे तापस ! तुं क्याथी आव्यो ? ॥ ३ ॥ तुं व्याकरण जाणे छे के विस्ताररुप तर्कशास्त्र जाणे छ ? शास्त्रोना माणकार आ ब्राह्मणो साथे कयो वाद करशे ? ॥ ४ ॥ त्यारे तापसरुप मनोवेगे कह्यु के-हे ब्राह्मणो ! हुं तो आ पासेना गाममाथी आव्यो छु, व्याकरण के तर्कवाद हुं कई जाणतो नथी ॥ ५ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के-हे तपस्वी ! तुं मश्करी ठठो छोडीने जे खरं होय ते कहे. स्वरुप पूछवाबाळानी साथे मश्करी ठठो करवो व्याजबी नथी ॥ ६ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के-हे ब्राह्मणो ! हुं तमने खरेखलं कहुं, परंतु कहेता डरूं छु, केमके जे निर्विचार दुष्ट पुरुष होय छे, ते युक्त वचन कहेवा छतां पण अयुक्त समजीने तरतज मोटो उपद्रव करी वेसे छे ॥ ७-८ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के हे भाई! जे कई कहेवा योग्य होय ते कहे, आहआं सघळा ब्राह्मणो विवेकी अने युक्त पक्षना अनुरागी छे ॥ ९॥ ब्राह्मणोनुं आ वचन सांभळाने मनोवेगे