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सत्कार करता नथी, मोटा आडंबरनीज पूजा करे छे, गुणोनी पूजा कोई पण करतुं नथी ॥ ८ ॥ आ सांभळीने ब्राह्मणोए कयु के हे भद्र! तुं कोईरीते पण डर नाह, प्रस्ताविक कथनथी ( रत्नालंकार सहित घास लाकडां वेचनार जेवा पुरुष भारत रामायणादिमां बताववा वगेरेथी ) महात्मा पुरुषामां चावेलाने चावबुं शोभतुं नथी ॥ ९ ॥ त्यारे मनोवेगे कह्यु के, जो एम छे तो हुं जे वचन कहुं तेनो पूर्वापर विचार करीने स्विकार करजो ॥ १० ॥
- आ जगतमां पुंडरिक नामनो प्रख्यात एक प्रसिद्ध देव छे, ते आ जगतनी सृष्टी, स्थिति अने विनाश- एकमात्र कारण छे ॥ ११ ॥ जेना प्रसादथी जगतजन अविनाशी पद मेळवे छे, ते आकाशनी समान सर्वव्यापीक नित्य, निर्मल अने सदा अक्षय छे ॥ १२ ॥ तथा त्रिलोकरुपी घरनो एकमात्र स्तंभ अने शत्रुने बाळवामां दावानळ समान, जेना हाथमां धनुष, शंख, गदा, चक्रवडे भूषित छे तथा ॥ १३ ॥ जेनावडे जगतने ऊपद्रव करवावाळा दुष्ट दानव, सूर्यनां किरणोथी अंधकारना समूहनी माफक तरत मार्या जाय छे ॥ १४ ॥ अने जेनी पासे लोकोने महा आनंद करवावाळी, आतापनो नाश करवावाळी मनोहर चंद्रकिरण समान पूजनीय लक्ष्मि छे॥ १५ ॥ जेना शरीरमां निर्मल प्रभावाला कौस्तुभमणि शोभायमान छे, ते जाणे पोताना सुंदर मांदरमा दिपकज राख्यो छे ॥ १६ ॥ माटे हे विप्रो! आ प्रकारना सघळा देवोना देव पुण्डरीक भगवाल वैकुंठना परमात्मा (विष्णु) मां तभे लोकोने भरोसो छे के नहि ? ॥ १७ ॥ त्यारे ब्राह्मणोए कह्यु के, हे भद्र ! उपला प्रकारना चराचर जगद्व्यापी जे विष्णु भगवान छे, तेने कोण नथी मानतुं ? ॥ १८॥ दुःखरुपी अग्निने मेघनी माफक,