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जेणे दोष बुद्धि धारण करी, ते मनुष्य कोने सुखदायक होय ? ॥ ८० ॥ एक वखत वक्र मोटा रोगथी पीडित थयो, ते नीतिज छे के 'जे पापि पारकाने दुखदायक होयं छे तेने कयुं दुख प्राप्त थतुं नथी ?॥ ८१ ॥ वक्रनी आवी अवस्था होवा छतां पण वक्रना पुत्रए कडं के पिताजी , तमे विशुद्ध मन करीने कोई एवा धर्मने धारण करो के जेनाथी आपने परलोकमां सुखनी प्राप्ति थाय ॥ ८२ ॥ परलोकमां मात्र सेंकडो सुख दुखना कर्ता आपणुं करलुं पुण्य पापरुप कर्मज साथे माय छे. पुत्र धन धान्यादिकमांथी कोई पण साथे आवतुं नथी ॥ ८३ ॥ हे पिता ! अन्तरहित मोटा लांबा मार्गवाळा आ संसाररुपी वनमा आत्मा सिवाय आपणुं अथवा पारकुं कोई पण नथी, ते माटे कुबुद्धि छोडीने कोई हितकारि कार्य करो ॥ ८४ ॥ मारी समजमां तो आप मित्र पुत्रादि कथी मोह छोडीने ब्राह्मण अने साधुओने माटे धनादिकनुं दान करो अने कोई इष्टदेव- स्मरण करो, के जेथी आपने सुखदायक गति प्राप्त थाय ॥ ८५ ॥ आ वचन सांभळीने वक्रए कह्यु के, हे पुत्र ! मारु एक हितरुप कार्य ( जे हुं कहुं छु ते ) करो. जे सुपुत्र होय छे ते पिताना पूज्य वाक्यर्नु उल्लंघन केदी करता नथी ॥ ८६ ॥ हे पुत्र ! मारा नीवतां तो आ स्कंध कदापि सुखी न थयो, परंतु बंधु, पुत्र, कुटुंब सम्पदासहित तेनो नाश हुं करी शक्यो नहि, माटे हे पुत्र, जेथी ए सह कुटुंब नष्ट थई जाय एवो कोई उपाय करजे. के जेथी हुं मनोहर शरीर धारण करीने प्रसन्नचितथी हमशांने माटे स्वर्गवास करी शकुं ॥ ८७८८ ॥ मारी समजमां एने माटे एवो उपाय करवो के-मारा मरी जवा