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गरुडराज करे छे, तेने कोई कालमां पण सर्पनी पीडा थई शकती नथी ॥ ८३ ॥ आ प्रमाणे कहीने माथा उपर हाथ राखी विनयपूर्वक उभा थईने केवलज्ञानरूपी किरणोथी प्रकाशित कर्या छे सघळा पदार्थ जेणे एवा केवलरुपी भगवानने विनय साथे नमस्कार करीने मनोवेगे नीचे प्रमाणे प्रश्न कयों, केमके एवा सूर्य वगर समस्त प्रकारना संशयरुपी अन्धकारनो नाशक बीजो कोई नथी ॥ ८४ ॥ हे देव ! प्राण करतां पण वहालो मारो मित्र पवनवेग विद्याधर मिथ्यात्वरूपी विषथी आकुलित श्रद्धान थईने प्रवर्ते छे, ते कोई वखत पण आ पवित्र जैनधर्मनां प्रवर्तशे के नहि ते कृपा करीने मने सुचित करो ॥ ८५ ॥ हे देव ! ए पवनवेगने कुमार्गमा प्रवर्ततो जोईने मारा हृदयमां वज्राग्निनी शिखा समान अनिवार्य तापने उपजाबवावाळी चिन्ता उत्पन्न थायछे, केमके समानशील गुणवाळानी साथे करेली मित्रताज सुखदायक होयछे ॥ ८६ ॥ जे अनेक प्रकारना दुःखोनी खाणरुप मिथ्यात्वमार्गमां लवलीन चित्त थईने चालता पोताना मित्रने निवारण करतो नथी; ते निश्चय करीने तेने सर्पोथी भयंकर महागंभीर कूवामां नांखे छे ॥ ७ ॥ जीवोने मिथ्यात्व समान तो बीजो महा अन्धकार नथी अने सम्यक्त्वनी समान बीजं कोई विवेककारी नथी.जे प्रमाणे संसारनीबराबर बीजी कोई निषेध करवाजेवी वस्तु नथी तेज प्रमाणे मोक्षनी बराबर बीजी कोई प्रार्थना करवायोग्य वस्तु नथी ॥ ८८ ॥ हे भगवान ! तेने पवित्र भव्यपणुं छे के नहि ? केमके भव्यता विना तत्वसमूहनी रचना व्यर्थं थाय छे.जे प्रमाणे कांगरुमगने सिजाववाने माटे सघळा प्रकारना करला उपाय व्यर्थ जायछे,तेप्रमाणे अभव्यने वस्तुनुस्वरुप समजाव, पण व्यर्थ छ ॥ ८९ ॥ आ प्रमाणे प्रश्न करीने मनोवेग चूप रह्या बाद केवली भगवाननी उज्वल मनोहर वाणी प्रगट थइ के हे