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इसके अतिरिक्त हरिषेण के विषय में और कुछ भी नही मिलता । उन्होंने अपने आपको "विवुध विश्रुतकवि' कहा है। इससे यह अनुमान तो किया ही जा सकता है कि उन्होंने कुछ और भी ग्रन्थ लिखे होंगे जो किन्ही भण्डारों में छिपे पड़े हों।
जहां तक कवि के समय का प्रश्न है, वह उपर्युक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि हरिषेण ने अपना ग्रन्थ वि. सं. 1044 (ई. सन् 988) में लिखा था। क्षीरम ढकथा के प्रसंग में उन्होंने सागरदत्त नामक वणिक का उल्लेख किया है जो समुद्र पारकर चोल (१) द्वीप गया और वहां तोमर राजा से मिला । उसने तोमर को दुग्ध-दधि मिश्रित व्यंजन खिलाये जिससे आकृष्ट होकर तोमर ने उस गाय की कामना की (3.4)। यहां हरिषेण ने 'णालिएर पुव्व हो गउ दीपहो' तो लिखा है पर चोल द्वीप का स्पष्टत: उल्लेख नहीं किया है । अमितगति ने अपनी धर्मपरीक्षा (7.64) में अवश्य यह जोड़ दिया है। तोमरवंशीय क्षत्रिय दिल्ली को हो अपना मूल स्थान मानते हैं। चंबल को तोमरों ने सन् 736 ई. में अपना राज्य हरियाणा क्षेत्र में स्थापित किया था। वे ई. सन् 1192 तक ढिल्लिका को राजधानी बताकर राज्य करते रहे। मार्च 1192 ई. में ताराईन के निर्णायक युद्ध में चाहड़पालदेव तोमर की मृत्यु के साथ तोमरों का दिल्ली साम्राज्य समाप्त हो गया और फिर ग्वालियर तोमर इतिहास प्रारम्भ हुआ । हरिषेण और अमित गति ने तोमर का उल्लेख तो किया है पर उस वंश के किसी सम्राट का नामोल्लेख नहीं किया। साथ ही दक्षिणवर्ती चोल राज्य में तोमर का प्रवेश हुआ हो ऐसा कोई उल्लेख भी मुझे देखने नहीं मिला। हो सकता है, किसी युद्ध में कोई तोमर सम्राट हार गया हो, वह यों ही चोल द्वीप में पहुंच गया हो और बिना किसी प्रयत्न किये ही वह अपना राज्य वापिस लेना चाहता हो। इसी घटना को हरिषेण ने क्षीरमूढ कया में कहकर उसकी इच्छा को मूर्खता किंवा उपहासास्पद कह दिया हो । जो भी हो, हरिषेण काल तोमरकाल रहा है इसमें कोई संदेह नहीं है। ___इसी प्रकार हरिषेण ने तृतीय संधि के दसवें कडवक में दीणार ओर पल का उल्लेख किया है। दीणार का उल्लेख लगभग बारहवीं शताब्दी तक मिलता है। राजशेखर की राजतरंगणी में भी दोणार का सुन्दर वर्णन उपलब्ध है। पर यह उल्लेख हरिषेण के समय को निश्चित करने में अधिक सहायक नहीं हो पाता। कुल मिलाकर हम यही कह सकते हैं कि हरिषेण दसवीं शताब्दी के महाकवि थे।
दर्शनसार में देवसेन ने कहा कि है कि तीर्थ कर पार्श्वनाथ के तीर्थ में शुद्धोदन और उनके पुत्र महात्मा बुद्ध थे। बुध्द ने संघ में रहकर मत्स्य, मांस
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