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१०. चार मूर्खों की कथा
चार मूर्खजन कहीं जा रहे थे । इतने में उन्होंने एक श्रुत संपन्न संयमी मुनिराज को देखा । वे मुनिराज त्रिगुप्तिवान् होने पर भी कर्मबन्ध से निर्मुक्त हैं, समल होकर भी निर्मल हैं, पण्डितगण उनकी स्तुति करते हैं, दिग्वास होने पर भी आशा विरहित हैं, मुक्त हरण होने पर भी तिर्यञ्च समूह से शोभित हैं, निर्ग्रन्थ होने पर भी ग्रन्थों के परिग्रह से युक्त हैं, मद का विध्वंसन करने पर भी मद से आहत नहीं हैं । ऐसे तपस्वी साधक मुनिराज की वंदना उन चारों मूर्खों ने की । मुनिराज ने उन चारों को आशीर्वाद दिया । एक योजन जाने के बाद वे चारों मूर्ख परस्पर झगड़ने लगे । एक ने कहा मुझे आशीर्वाद दिया था । दूसरे ने कहा मुझे आशीर्वाद दिया था। किसी तीसरे व्यक्ति के समझाने पर इस कलह को निपटाने के लिए वे मुनिराज के पास गये और पूछा कि उन्होंने आशीर्वाद किसे दिया था। मुनिराज ने उत्तर दिया- जो सर्वाधिक मूर्ख हो । उसे मैंने आशीर्वाद दिया था ( धम्मुचरइ ) | यह सुनकर वे चारों मूर्ख नगर की और गये और नगरवासियों से यह निश्चय कराने लगे कि उनके बोच सर्वाधिक मूर्ख कौन है | नगरवासियों में से एक ने कहा कि तुम लोग अपनी-अपनी मूर्खता की कथा कहो तभी यह विवाद सुलझ सकता है ( 11-13) |
उनमें से एक ने कहा-मेरी दो स्त्रियां हैं और दोनों ही प्रिय हैं । एक दिन रात में मैं उत्तान शयन कर रहा था। इन दोनों पत्नियों ने मेरे एक-एक हाथ को मस्तक के नीचे दबाकर मेरे दोनों ओर सो गई । मैंने सोते समय अपने मस्तक पर प्रज्वलित दीपक रख लिया था। एक मूषक उस दीपक में से जलती बत्ती निकालकर ले भागा । वह बत्ती मेरी वायीं आंख पर गिर गई । दुःख से व्याकुल होते हुए मैंने सोचा कि यदि दायां अथवा बायां हाथ निकालकर बत्ती बुझाता हूं तो ये दोनों स्त्रियां जाग जायेंगी और वे रुष्ट हो जायेंगी । फलतः उस दुःख को मैं चुपचाप सहता रहा और तभी से मैं काना हो गया हूँ । इसलिए मेरा नाम 'विषमावलोचन' हो गया है। मनोवेग ने कहा कि यदि आपके बीच ऐसा कोई पुरुष हो तो कहते हुए भी भयभीत होता हूँ। जब वह मूर्ख अपनी कथा कहकर थक गया तो दूसरे मूर्ख ने अपनी कथा कहना प्रारंभ किया ||14||
उसने कहा- मेरी भी दो स्त्रियां थीं। वे बड़ी कुरूप ओर भयंकर थी । एक का नाम खरी था जो दायां पैर धोया करती थी और दूसरी का नाम ऋच्छिका था जो वायां पैर धोया करती थी । एक दिन खरी ने मेरा दायां पैर धोकर वायें पैर पर रख दिया । ऋच्छिका ने क्रोधित होकर मेरे पैर को मूसल से तोड़ दिया। तब खरी ने उसको भला-बुरा कहकर बहुत डांटा और उस पर विटों के साथ व्यभिचार का दोषारोपण किया । ऋच्छिका ने भी इसी तरह खरी पर व्यभिचारिणी होने का आरोप किया और कहा कि तेरा शिर मुंड़वा
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