________________
ने चलते समय एक सु दर गाय भी साथ ले ली। चोल द्वीप में पहुंचकर उसने कुछ भेंट के साथ तोमर नरेश से भेंट की। दूसरे दिन वह खीर ले गया और तीसरे दिन शालिधान्य का बना हुआ चावल ले गया। तोमर बादशाह द्वारा इस स्वादिष्ट भोजन के बारे में पूछे जाने पर सागरदत्त ने कहा कि यह भोजन उसकी कुलदेवी देती है। तोमर की प्रार्थना पर उसने फिर उस गाय को उसे दे दिया और बदले में अकूत सम्पत्ति लेकर वापिस चला आया।
दूसरे दिन बादशाह ने गाय के सामने पात्र रखकर दुग्धयाचना की । कोई फल न देख कर उसके दुःखी होने की कल्पना कर ली। तीसरे दिन उसके सामने बर्तन रख कर दिव्य भोजन की याचना की। फिर भी गाय चुपचाप खड़ी रही। यह देखकर क्रोधित होकर तोमर बादशाह ने उस गाय को अपनी द्वीप से बाहर निकाल दिया। उसे यह भी ज्ञान नहीं रहा कि याचना मात्र से कहीं दूध मिलता है। इसी प्रकार जो प्रक्रिया जाने बिना ही वस्तु-प्राप्ति करना चाहता है वह उसे कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता। अभिमान को छोड़ बिना संसार समुद्र से पार कोई भी नहीं हो सकता, शुक्लध्यान प्राप्त नहीं कर सकता । वह तोमर बादशाह के समान प्राप्त वस्तु को भी अज्ञानतावश हाथ से खो बैठता है (1.4-6)। ८. अगुरु मूढ कथा
मगध देश में गजरथ नामक एक राजा था। एक दिन वह राजा अपने मंत्री के साथ क्रीड़ा करते हुए जंगल में काफी दूर निकल गया। वहां पहले से ही खड़े हुए तुरंग लिए एक भत्य को देख कर राजा ने मंत्री से पूछा - यह कोन है, किसका नौकर है और किसका पुत्र है ? मंत्री ने उत्तर दिया- यह हरि नामक मेहर (महत्तर-महार) का पुत्र हलि है। यह बारह वर्ष से आपकी क्लेशकारक सेवा कर रहा है। तब राजा ने मंत्री से कहा- तुमने अभी तक इस पयादे के क्लेश का कारण मुझसे क्यों नहीं कहा ? सप्तांग वाले राज्य में मंत्री का कर्तव्य है कि वह भृत्य के गुण-दुर्गुण को राजा से कहे (7) । तदनंतर राजा ने प्रसन्न होकर हलि से कहा-500 गांवों के साथ एक मठ तुम्हें दे रहा हूँ उससे तुम अपने बंधु-पुत्रों सहित सुखी रहोगे। हलि ने कहा-मेरा कोई परिवार नहीं है । मैं इन गांवों का क्या करूंगा ? ये गांव उन्हीं द्वारा ग्रहणीय हैं जिनके पास हजारों भृत्य और सैनिक हो । राजा ने कहा- गांवों से ही धन की प्राप्ति होती है, भृत्य मिलते हैं, सुपुत्र, सुमित्र, सुबन्धु सभी कुछ उपलब्ध होते हैं । धन ही सत्य का मूल है, सुख का कारण है। धन के कारण ही कायर भी वीर हो जाते हैं, अधीर भी धीर बन जाते हैं, असत्य भी सत्य हो जाता है। धन से ही पुण्य होता है, धर्मरागी होता है। जो व्यक्ति संपत्तिवान् हो और धर्मरागी न हो वह चर्मचक्षुवान् होने पर भी दृष्टा नहीं है, पशु के समान है ॥8।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org