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ये आभूषण लोहे के हैं उसे वह लोहदण्ड से प्रहार करता। ठीक है - जिसकी व्युद्ग्राही मति हो जाती हैं वह ऐसा ही कार्य करता है । जो व्यक्ति जात्यंध के समान दूसरों के कहे वचनों पर विचार किये बिना ही काम करता है वह युद्ग्राही कहलाता है (24) 1
३. तृतीय संधि
५. पित्तदूषित मूढ कथा
विपरीत भाव को जाननेवाला अर्थात् गुण को दोष और दोष को गुण मानने वाला व्यक्ति पिस्तदूषित मूढ कहलाता है। इसकी लोक कथा इस प्रकार है - पित्तज्वर से आक्रान्त किसी व्यक्ति को शक्कर मिश्रित दुग्ध दिये जाने पर वह उसे कडुवा कहकर छोड़ देता है । इसी प्रकार पित्तदूषित व्यक्ति दुःख को सुख, सुख को दुःख मानकर उचित - अनुचित का भेद नहीं जान पाता ।
६. आम्र मूढ पुरुष कथा
इसी तरह आम्रमूढ पुरुष की कथा है। अंग देश में चंपापुर नगरी के राजा नृपशेखर को उसके वंगदेशीय राजा ने एक आम्रफल भेजा । एक आम्रफल को कितने लोग खा सकेंगे यह सोचकर नृपशेखर ने उसे अपने वनमाली को रोपने के लिए दिया । वह आम कालान्तर में बड़ा होकर सुन्दर और स्वादिष्ट फल देने • लगा । एक दिन किसी पक्षी के मुख से सर्प की विषाक्त वसा संयोगवशात उसी वृक्ष एक फल पर गिर गयी । उसके प्रभाव से वह फल समय के पूर्व ही पककर जमीन पर गिर गया । वनपाल ने उसे राजा को भेंट किया और राजा ने अपने युवराज पुत्र को दिया । युवराज ने उसे खा लिया और विषप्रभाव के कारण वह तुरन्त दिबंगत हो गया । क्रोधांध होकर राजा ने उस वृक्ष को कटवा दिया । वृक्ष के फलों को आम जनता ने मरने की इच्छा से बड़ी प्रसन्नता पूर्वक खाया । पर उनकी मृत्यु न होकर वे खांसी, यक्ष्मा, जरा, वमन, शूल, क्षय, श्वास आदि रोगों से मुक्त हो गये । राजा ने यह जानकर बड़ा पश्चात्ताप किया और कहा कि बिना बिचार किये ही उसने आम्रवृक्ष कटवा दिया। कर्मानुसार इसकी अविवेकी बुद्धि ने ऐसा किया। मनुष्य और पशु में यही भेद है कि मनुष्य को हिताहित का विचार होता है पर पशु ऐसा विचार नही कर पाता (1.1-3) 1
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७. क्षीरमूढ की कथा
छोहार नामक देश में सागरदत्त नाम का एक वणिक् रहता था। वह सागर चार व्यापारार्थ चोल (?) द्वीप पहुंचा । भोजन- नन्दी होने के कारण सागरदत्त
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