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रात्रि में जिनमंदिर के दर्शन करने गई । फिर पुत्रों ने रात्रिभोजन मांगा पर धनमति ने उन्हें रात में भोजन नहीं दिया बल्कि उन्हें रात्रिभोजन त्याग का आग्रह किया । फलतः उन्हें कालान्तर में विपुल संपत्तिलाभ हुआ (3)।
एक रथनपुर नामक सुन्दर नगर है। प्राकार और गोपुरों से सुसज्जित है। पर वहां एक दोष है और वह यह कि जिनधर्म का पालन लोग वहां नहीं करते हैं, विषयासक्त है। वहां का राजा प्रचण्ड है जो शत्रुओं के लिए वज्रदण्ड है। वहां एक वणिक् आया जिसके पास अपार धनसंपत्ति थी। उसी नगर में एक वेताल आया जो कपाल आदि धारणकर नृत्य करता था। उसने वणिक् को फुसलाकर उसे रात्रिभोजन कराकर उसके सारे धन का अपहरण कर लिया (4-6)। वणिक् ने यह वृत्तान्त राजा से कहा । राजा ने उस वेताल को दण्डित किया और वणिक् ने रात्रिभोजन का त्याग किया। रात्रिभोजन करने से पशु-पक्षी योनि मिलती है। जन्म-जन्मान्तर तक दुःख प्राप्त होते हैं। इस संदर्भ में यहां अनेक छोटी-छोटी कथायें दी गई हैं (8-10) ।
अतिथिदान व्रत कथा के संदर्भ में नागश्री द्वारा दिये गये मुनियों को आहारदान का फल वणित है। पंचणामोकार मंत्रस्मरण के फल का भी उल्लेख है । अभयदान, औषधिदान आदि से संबद्ध कथायें भी यहां संक्षेप में है। ये कथायें अन्तर्कथाओं में जुड़ी हुई हैं (11-22)। बाद में शिक्षाव्रतों की महिमा का आख्यान करते हुए मानव जीवन में जिनधर्म की उपयोगिता के संदर्भ में कवि अपने विचार व्यक्त करते हुए कहता है कि उसका पालक अहिंसक, विनयी और भेदविज्ञानी होता है (23-25)।
अन्त में हरिषेण कवि ने अपनी प्रशस्ति और धर्मपरीक्षा लिखने का उद्देश्य स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा है- मेवाड़ में स्थित चित्रकूट (चित्तौड़) का मैं निवासी हूं उजौर (ओजपुर) से उद्भूत धक्कड़ मेरा वंश है। इसी वंश में हरि नामक एक कलाकार थे। उनके पुत्र गोवर्धन हुए और गोवर्धन का पुत्र में हरिषेण हूं। मेरी माता का नाम गुणवती है। यहीं कवि ने अपने दो विशेषण दिये हैं- गुणगणनिधि और कुल गगन दिवाकर । मैं किसी कारणवश चित्तौड़ से अचलपुर पहुंचा और वहीं छन्द-अलंकार का परिज्ञान कर धम्मपरिक्खा की रचना की । कवि ने स्वयं को 'विषुह-कइ-विस्सुउ' भी कहा है (26)। इसके पूर्व के कडवक में कवि ने सिद्धसेन की धरणवन्दना की है।
धम्मपरिक्खा की रचना वि. सं. 1044 में हुई। बुध हरिषेण ने सोचा कि जो किसी ग्रन्थ की रचना करे, भगवान की भक्ति करे, परदुःख दूर करे वह धन्य है। यही सोचकर धम्मपरिक्खा की रचना की है । जो उसे भक्तिभाव से पढेगा, निर्मलचित्त होकर श्रवण करेगा उसका मन शान्त हो जायेगा (27) ।
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