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आप्त कहा है । उसमें क्षुधा, तृषा, बुढापा, रोग, जन्म, मरण, भय, गर्व, राग, द्वेष, मोह, चिन्ता, रति, विषाद, खेद, स्वेद, निद्रा और आश्चर्य ये अठारह दोष नहीं रहते हैं । वे भामण्डल, दुन्दुभि, चामर आदि अतिशय गुणों से अलंकृत होते हैं। उनके गुणों का अनुस्मरण और पूजन साधक के कर्मों का विनाशक होता है । इस संदर्भ में महाकवि ने क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिञ्चन्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन दस धर्मों का तथा अनित्य, अशरण, संसार आदि बारह भावनाओं का वर्णन किया है । "
श्रावक व्रत
पवनवेग का हृदय परिवर्तन होने के बाद उसे श्रावक व्रतों का स्वरूप समझाया जाता है । कथा का प्रारंभ और अन्त उज्जैयिनी से होता है । यहीं मुनिचन्द्र ने उसे श्रावक व्रत दिये और फिर जैनधर्म में दीक्षित कर लिया । पवनवेग ने स्वयं धर्म के सम्यक् स्वरूप को समझकर दीक्षा लेने का आग्रह मुनिवर से किया ।
इस प्रसंग में बारह व्रतों का जो वर्णन धम्मपरिक्खा में मिलता है वह उसकी परम्परा की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण है । नवम संधि में अष्ट मूल गुणों का उल्लेख है - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पांच अणुव्रत तथा मद्य, मांस और मधु का त्याग। जैसा हम जानते हैं, अष्टमूल गुण परम्परा समन्तभद्र से प्रारंभ होती है। उनके पूर्ववर्ती कुन्दकुन्द ने पृथक् रूप से उसका कोई उल्लेख नहीं किया । पूज्यवाद अकलंक और विद्यानन्द ने भी कुन्दकुन्द का अनुकरण किया। संभवतः समन्तभद्र के समय मद्य, मांस, मधु का सेवन अधिक होने लगा होगा । रविषेण ( वि सं . 734) ने दोनों का समन्वय कर श्रावक व्रतों के साथ ही मद्य, मांस, मधु का वर्णन किया और द्यूत, रात्रिभोजन तथा वेश्यागमन को भी छोड़ने का आग्रह किया । हरिषेण ने रात्रिभोजन त्याग पर भी समान रूप से बल दिया है। ग्यारहवीं सन्धि में तो रात्रिभोजन कथा का भी वर्णन किया है ।
अष्टमूल गुण परंपरा से ही विकसित होकर षट्कर्मों की स्थापना की गई । भगवज्जिनसेनाचार्य ने पूजा, वार्ता, दान, स्वाध्याय, संयम और तप को श्रावक के कुलधर्म के रूप में स्थापित किया है । हरिषेण ने इनका यथास्थान विवेचन किया है । पर इससे अधिक उन्होंने शिक्षाव्रतों को अधिक महत्व दिया है । कुन्दकुन्द ने सामायिक, प्रोषध, अतिथिपूजा और सल्लेखना को शिक्षव्रत माना है | भगवती आराधना में सल्लेखना के स्थानपर भोगोपभोग परिमाणव्रत और कार्तिकेय ने देशावकाशिक रखा । उमास्वामी ने सामायिक
1. धम्मपरिक्खा, 4-23; 5.18-20; 9.13, 18-25.
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