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सुखमा, सुखमा-दुःखमा, दुःखमासुखमा, दुःखमा, व दुःखमा-दुःखमा। ये भेद उत्सपिणीकाल के हैं और इन छहों काल के व्यतीत हो जाने पर एक कल्पकाल होता है । अवसर्पिणी काल में इनका क्रम उल्टा हो जाता है। प्रथम तीनों कालों में व्यक्ति का जीवन कल्पवृक्षों पर निर्भर रहता था। अतः इसे भोगभूमि कहा जाता है। यहां अत्यन्त सुन्दर स्त्री-पुरुष युगल पैदा होता है और उसके उत्पन्न होते ही उसके माता - पिता काल कवलित हो जाते हैं। तीसरे काल के अंत में जब एक पत्य का आठवा भाग शेष रह जाता है तो उस काल में चौदह कुलकर उत्पन्न होते हैं । वे कर्मभूमि की व्यवस्था बताते हुए असि मसि, कृषि, वाणिज्य विद्या और शिल्प की शिक्षा देते हैं। चौदह कुलकरों के नाम है- प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाह, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित और नाभि राजा । अंतिम कुलकर नाभिराजा और मरुदेवी से ऋषभनाथ नामक प्रथम तीर्थकर हुए (1) । तीर्थंकर ऋषभदेव और संस्कृति संचालन
पहले जीव युगल रूप में उत्पन्न होते थे और वैसे ही च्युत होते थे। वे युगल 49 दिनों में समस्त भोग भोगने में समर्थ हो जाते थे। कल्पद्रुम धीरे-धीरे समाप्त होते गये और अंतिम कुलकर ऋषभदेव ने कर्मभूमि का पाठ पढ़ाते हुए षडविद्याओं की शिक्षा दी । इन्द्र ने कच्छ राजा की नन्दा और सुनन्दा के साथ उनका विवाह कर दिया। उन दोनों स्त्रियों से उनको ब्राह्मी और सुन्दरी नामक दो कन्यायें तथा सौ पुत्र हुए (2) ।
अठारह कोडाकोड़ी सागर तक उन्होंने राज्य किया। एक दिन भगवान के सन्मख देवियों का नृत्य हो रहा था। उस समय नाचते-नाचते नीलांजना देवी अदृश्य हो गई, चल बसी। यह देखकर भगवान ऋषभदेव को संसार से वैराग्य होगया। फलतः अपने राज्य को भरत के लिए समर्पित कर निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर ली। दुस्सह परिषहों को झेलते हुए उन्होंने निवृत्ति मार्ग की सार्थकता पाई (3) । भगवान के साथ ही अन्यान्य राजाओं ने भी तपग्रहण किया। परन्त थोडे ही समय बाद पथभ्रष्ट होने लगे । उनका आचरण शिथिल हो गया। किसी देवता ने उन्हें उनके दिगम्बर स्वरूप का ध्यान कराकर इस शिथिलता से मक्त होने का आग्रह किया । यह सुनकर कितने ही नरेन्द्र अपने घर वापिस हो गये, कितने ही अप्राशुक जलादि पीते हुए संकोचवश पाखण्ड भेष मे ही बने रहें और कछेक भरत चक्रवर्ती के भय से भगवान का साथ नहीं छोड़ सके । कच्छ महाकच्छ राजा ने पाण्डित्य के गर्व से कन्दमूल भक्षण करना, बक्कल पहिनना ही तापसीय धर्म बताया। मारीचिने सांख्यमत की प्ररूपणाकर कपिलादि शिष्यों को उपदेश दिया। इस प्रकार 363 मिथ्यात्व प्रचलित हो गये। भगवान ऋषभदेव ने यह सब देखकर शुद्धान्न ग्रहण करने का मानस बनाया। पूर्वजन्म के प्रभाव
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