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किरण लुप्त हो जाते हैं ? और फिर हम तो आपके साथ वाद-विवाद कर भी नहीं सकते । ब्राह्मणों ने कहा-इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं है। यह तो मार्जार का दोष है। क्या उस दोष को दूर कर सकते हैं ? मनोवेग ने कहा-यह संभव है। पर आपके साथ बात करने में मुझे भय का अनुभव होता है। जो व्यक्ति कूपमण्डूक के समान अथवा कृनक बधिर के समान अथवा क्लिष्टभृत्य के समान होता है उसके सामने सत्य तत्व को प्रस्तुत करने में भय-सा बना रहता है।
एक समय समुद्र निवासी राजहंस को देखकर किसी कूप-मण्डूक ने पूछातुम कहाँ रहते हो ? राजहंस ने कहा- समुद्र में । तेरा समुद्र कितना बड़ा है ? बहुत बड़ा है । मण्डूक ने तब हाथ पसारकर कहा- इतना बड़ा है। राजहंस ने कहा- बहुत बड़ा है। मेरे कुए से भी बड़ा है ? इससे बहुत बड़ा है ? परन्तु मेंढक ने तब भी उसे स्वीकार नहीं किया । कृतक बधिर वह है जो आगम अथवा शकुन शास्त्र को न मानकर किसी कार्य का प्रारंभ करता है। इसी तरह क्लिष्टभृत्य वह है जो राजा को दुष्टमति, तृष्णालु, कृपण जानकर भी उसे नहीं छोड़ता और क्लेश भोगता रहता है। ऐसे लोगों से तत्व की बात कहना उचित नहीं है ।। 6॥
जो इन तीनों प्रकार के पुरुषों के समान कार्य-अकार्य की उपेक्षा करते हैं उनके लिए सज्जन तत्व का यथार्थ स्वरूप न कहे । बिना साक्षी के सत्य भाषण भी नहीं करना चाहिए । तभी तो. 'षोडश मुट्ठि न्याय' प्रसिद्ध हुआ। दस प्रकार के मूों की पूर्वोक्त कथा भी इसी प्रकार की है। यह सुनकर ब्राह्मणों ने कहा- हे भद्र ! क्या हम लोग ऐसे मूर्ख हैं जो प्रमाण सिद्ध तथ्य को भी स्वीकार नहीं करेंगे ? तब मनोवेग ने कहा कि वह पुराण और आगम में कथित प्रमाणों के आधार पर ही बात करेगा। उसे कृपया सुनिए । मण्डपकौशिक और छाया कथा
कठोर तपस्या करने वाला एक मण्डपकौशिक नामक तपस्वी था। एक दिन अन्य तपस्वियों के साथ किसी ने उसे भी भोजन पर आमन्त्रित कर लिया। तथाकथित पवित्र तपस्वियों ने उसे पंक्ति में भोजन करते हुए देख कर कोपाविष्ट होकर वे सहसा उठ खड़े हुए। जजमान के पूछने पर तपस्वियों ने कहा कि भोजन पंक्ति में एक पापी बैठा हुआ है । मण्डपकौशिक ने पूछा- बताइये, इसमें मेरा क्या दोष है ? तपस्वियों ने कहा- तुम अपुत्रवान् ब्रह्मचारी हो । पत्र के बिना न इहलोक न परलोक में कोई गति मिलती है। अतः तुम्हारा संसर्ग भी वर्जित है । मोक्ष की इच्छा हो तो पहले गृहस्थाश्रम स्वीकार कर पुत्रवान् बनो ।॥7॥
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