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(१४) आदि का भक्षण करना प्रारंभ कर दिया । फलतः उन्हें संघ से निष्कासित कर दिया गया। बाद में उन्होंने संघ से पृथक होकर अपने अलग धर्म की स्थापना कर ली जिसे बौद्धधर्म कहा जाने लगा। यह प्रसंग धम्मपरिक्खा की दशवीं संधि के दशवें कडवक में हरिषेण ने उद्धृत किया है। देवसेन का भी समय लगभग दशवीं शताब्दी माना जाता है। हरिषेण और देवसेन इस दृष्टि से समकालीन कवि सिद्ध होते है। ३. हरिषेण के पूर्ववर्ती कवि
हरिषेण ने अपने पूर्ववर्ती कवियों में चतुर्मुख, पुष्पदन्त, स्वयंभू बध सिद्धसेन और जयराम का उल्लेख किया है। धर्म परीक्षा के प्रारंभ में ही
सिद्धि पुरंधिहि कंतु सुद्धे तंणु-मण-वयणे।
भत्तिए जिणु पणवेवि चितिउ बुह-हरिषेणें ।। मणुयजम्मि बुद्धिए किंकिज्जइ मणहरु जाइ कन्वु ण रइज्जइ । तं करंत अवियाणिय आरिस हासु लहहि भड रणि गय-पोरिस । चउमहं कन्वविरयणि सयंभु वि पुप्फयंतु अण्णाणु णिसंभिवि । तिण्णि वि जोग्ग जेण त सीसइ चउमुह मुहे थिय ताव सरासइ । जो सयंभु सो देउ पहाणउ अह कह लोयालोय-वियाणउ। पुष्फयंतु णवि माणुसु वुच्चइ जो सरसइए कयावि ण मुच्चइ । ते एवंविह हउं जडु माणउ तह छंदालंकार-विहूणउ । कम्प करंतु केम णवि लज्जमि तह विसेस पिय-जण किह रंजामि । तो वि जिणिद-धम्म-अणुराएं बुधसिरि-सिद्धसेण-सुपसाए । करमि सयं जि णलिणि-दल-थिउजलु अणुहरेए णिरुवमि मुत्ताहलु । घता-जा जयरामें आसि विरइय गाह-पबंधि ।
साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धडिया-बंधि। चतुर्मुख
हरिषेण ने जिन महकवियों का उल्लेख किया है उनमें चतुर्मख का नाम शीर्षस्थ है । लगता है, वे अपभ्रंश के कदाचित् प्राचीनतम कवि रहे हैं । यही कारण है कि स्वयंभू ने अपने पउमचरिउ, रिहणेमिचरिउ और स्वयंभछन्द में तथा पुष्पदन्त ने अपने महापुराण में उनका बड़े सम्मान के साथ उल्लेख किया है । पुष्पदन्त ने तो यहां तक लिखा है कि चतुर्मुख के तो चार मुख हैं, उनके आगे सुकवित्व क्या कहा जाये-चउमुहहु चयारि मुहाहिं जहिं, सुकइ तणु सीसउ काई तहिं (महापुराण, 69 वीं संधि)। स्वयंभू ने कहा कि चतुर्मुख ने छर्दनिका, द्विपदी और ध्रुवकों से जटित पद्धड़ियां दी हैं (रिट्ठणे मिचरिउ)। उनके पउमचरिउ का वह उल्लेख भी स्मरणीय है जहां कहा गया है कि चतुर्मख के
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