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मित्र होता है, वह कभी भी मित्र की प्रार्थना को निष्फल नहीं जाने देता। अतः मुझे पाटलिपुत्र ले चलो और मेरे वचनों का उलंघन मत करो ॥19॥ मनोवेग ने उसकी इस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। उसने कहा कि कल प्रातःकाल भोजन करके चलेंगे। दोनों मित्रों ने मिलकर घर पर स्वादिष्ट भोजन किया और तांबूल भक्षण कर प्रसन्नचित्त हुए ।।20।
२. द्वितीय संधि पटना की और प्रस्थान
दूसरे ही दिन सूर्योदय होने पर मनोवेग और पवनवेग पटना नगर की ओर चल पड़े । उन्होंने नगर के बाहर एक मनोहर उद्यान देखा । वहां हिताल, ताल, कंकेलि, हरिचंदन, कर्पर आदि लताओं की मनमोहक सुगन्धि फैल रही थी। उसमें वे दोनों मित्र कामदेव जैसे शोभित हो रहे थे। मनोवेग ने पवनवेग से कहा कि जैसा वह कहे, वैसा ही अनुसरण करे। पवनवेग ने इसे स्वीकार कर लिया। तब दोनों मित्रों ने मणि, कुण्डल आदि आभूषण पहनकर तथा शिर पर तृण और काष्ठ रखकर कौतुहल पूर्वक नगर में प्रवेश किया। उनको देखकर लोग विनम्रतापूर्वक कहने लगे-ये लोग शिर पर तृण-काष्ठ रख कर क्यों घूम रहे हैं ? ये या तो मूढ़ है अथवा क्रीडा कर रहे हैं। मणि मुकुट धारण कर तृण-काष्ठ बेचनेवाले नहीं है, ये तो विद्याधर से लगते हैं ।। 1 ।।
यह जानकर कुछ लोग यह भी विचार करने लगे कि दूसरे की चिन्ता करने का प्रयोजन क्या है ? वह तो पापबन्ध का कारण है। इसी बीच जब नगर वधुओं ने उन्हें देखा तो वे काम-पीडित हो गई। वे कहने लगी- ये तो साक्षात् कामदेव हैं । किसी ने कहा- ऐसे तृण-काष्ठधारी सुन्दर युवकों को मैंने अभी तक नहीं देखा । किसी ने कहा सखि, जाओ, पूछो, तृण-काष्ठ का मूल्य क्या है ? जो भी मूल्य हो, दे दो। जीवन के साथ मूल्य का क्या महत्व है ? इस प्रकार नगर निवासियों के वचन सुनते हुए वे दोनों कुमार ब्रह्मशाला (वादशाला) में पहुंचे और तृण-काष्ठ का भार उतारकर भेरी बजा दी तथा सिंहासन पर बैठ गये । भेरी का शब्द सुनकर विप्रगण एकत्रित हो गये और मैं वाद करूंगा, मैं वाद करूंगा कहते हुए उन विद्याधरों के पास पहुंच गये ॥३॥
मनोवेग के रूप को देखकर वे आश्चर्यान्वित हो गये। वे कहने लगे कि यह तो साक्षात् नारायण है, विष्णु परमेश्वर है पर विष्णु तो चतुर्मुख होते हैं, ब्रह्मा है, पर ब्रह्मा तो चर्तुवसनी होते हैं, इन्द्र है, पर इन्द्र तो सहस्राक्ष है। इस तरह सोचकर उन्होंने कुमारों से पूछा-क्या तुम वाद करोगे ? कनकासन पर क्यों बैठ गये हो ? इस नगर में चारों वेदों के ज्ञाता हैं और सभी धर्मों के
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