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5. ण दोनों पाण्डुलिपियों में मिलता है ।
6. न कहीं कहीं मिलता है पर उसे भी ण कर दिया है ।
7. मुद्रण की सुविधा की दृष्टि से अर्ध एकार ओकार को क्रमशः इकार जैसे पिए, कुंतिहि, ससुरहो, महीयलि,
और ओकार कर दिया है । भारहो, भासविणु आदि.
8. यश्रुति और वश्रुति का यथास्थान प्रयोग
9. तृतिया एवं सप्तमी विभक्तियों के कारण प्रत्ययों तथा पूर्वकालिक कृदन्त शब्दों में इ तथा ए को स्वीकार किया गया है ।
३. ग्रन्थकार परिचय
१. हरिषेण नाम के अनेक कवि
हरिषेण नाम के अनेक आचार्य हैं जिन्होंने जैन साहित्य की विविध विधाओं पर ग्रन्थ रचना की है । उदाहरणार्थ- 1
1) समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति के लेखक हरिषेण ( ई. सन्. 345 )
2 ) अपभ्रंशग्रन्थ धम्मपरिक्खा के रचयिता (वि. सं. 1044 ) । इसके विषय में हम विस्तार से बाद में लिखेंगे 1
3) कर्पूर प्रकार या सूक्तावली के रचयिता हरिषेण त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित के रचयिता वज्रसेन के शिष्य थे (12 वीं शताब्दी) । रचयिता हरिषेण
4) जगत् सुन्दरीयोगमलाधिकार के
5) प्रभंजन के साथ वासवसेन के यशोधरचरित में उल्लिखित हरिषेण । उद्योतनसूरि की कुवलयमाला ( ई. सन् 778 ) में प्रभंजन का उल्लेख किया गया है ।
6 ) अष्टान्हिका कथा का रचयिता हरिषेण जिनकी गुरु परम्परा हैरत्नकीर्ति, देवकीर्ति; शीलभूषण, गुणचन्द्र, हरिषेण ।
7 ) वृहत्कथा कोश का रचयिता हरिषेण जो पुन्नाटसंघीय जिनसेन प्रथम की परंपरा में हुए हैं । अतः उनका समय ई. सन् की दशमी शताब्दी का मध्य भाग है ।
1. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, बृहत् कथाकोश, प्रस्तावना, P. 117-119. ; भारतीय विद्या भवन, बम्बई, 1943
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