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अन्तर्कथा, आख्यान, दृष्टान्त, संवाद, चरित, प्रश्नोत्तर, प्रहेलिका, सूक्ति बहावत, गीत आदि समाहित किये गये है । इन कथाओं को हरिभद्र सूरि ने चार भागों ( अर्थ, काम, धर्म और संकीर्ण ) में तथा उद्योतन सूरि ने तीन भागों (धर्म, अर्थ और काम) में विभाजित किया है । पुनः धर्मकथा चार भागों में विभक्त है- आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेदनी और निवेदिनी । उत्तरकाल में इन कथा भागों और भी विभाजित किया गया है ।
इस समय तक वैदिक आख्यानों का विकास भी प्रारंभ हो गया था । 'इतिहास पुराणाभ्यां वेद समुहयेत्' के रूप में पौराणिक शैली प्रचलित हुई जिसमें अतीत कथाओं के साथ ही नवोदित प्रवृत्तियों और परिस्थितियों के अनुरूप उनमें परिवर्तन और परिवर्धन किया गया। अतिशयोक्ति शैली का अपूर्ण उपयोग किया गया । उदाहरणार्थं पुरूरवा और उर्वशी का सहवास काल ऋग्वेद में चार वर्ष माना गया है पर पौराणिक वर्णन में उसे इकसठ हजार वर्ष कर दिया गया है । जनवर्ग को आकर्षित कर उसे धर्म में स्थिर करने के लिए इस साधन का प्रयोग किया गया। इन आख्यानों का सम्बन्ध अनुभूति से भले ही रहा हो पर उनमें अतिरंजना का तत्व बहुत अधिक जुड़ गया । वह तत्त्व पुराणों का अंग बन गया ओर कालान्तर में उसने स्वतन्त्र और पृथक् रूप में अपना विकास कर लिया। पुराण और इतिहास संवलित हो गया और अतिरंजना के तत्व में इतिहास तत्व पीछे रह गया । आख्यान, उपाख्यान, गाथा और कल्पों द्वारा दोनों तत्त्वों को विकसित किया गया और इन शब्दों का भी स्वतन्त्र विश्लेषण प्रारंभ हुआ । कौटिल्य अर्थशास्त्र और महाभारत ने पुराणों को श्रद्धेय और अतर्क्य घोषित कर दिया । वैदिक आख्यानों की पृष्ठभूमि में ही विष्णुपुराण, वायुपुराण, ब्रह्माण्डपुराण, मत्स्यपुराण, रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों की रचना हुई है । इनके प्रतिसंस्करण भी प्राप्त होने लगे । समीक्षात्मक दृष्टि से देखा जाये तो लगभग सातवीं शताब्दी तक अष्टादश पुराण और महाकाव्य की परिसीमा निश्चित हो चुकी थी ।
हरिभद्रसूरि को ये पौराणिक आख्यान सरलतापूर्वक उपलब्ध हो गये । वे स्वयं वैदिक पण्डित थे । जैनधर्म में दीक्षित होने पर उसके प्रगतिशील और व्यावहारिक तत्त्वों ने हरिभद्र के मन को आन्दोलित कर दिया और पौराणिक आख्यानों की अतिरंजित शैली ने अविश्वसनीयता को और गहरा बना दिया । उन्होंने आगमिक टीकाओं में इन आख्यानों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया । धूर्ताख्यान' में तो उन्होंने रामायण, महाभारत ओर पौराणिक आख्यानों पर जो
1. संपादक डॉ ए. एन. उपाध्ये, सिन्धी जैन ग्रन्थमाला, बम्बई, 1944 संघतिलकाचार्य का संस्कृत धूर्ताख्यान जैनग्रन्थ प्रकाशक सभा, राजनगर द्वारा 1945 में प्रकाशित हुआ ।
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