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वह बौद्धिक अभिमान अथवा पक्षपातपूर्वक नहीं किया है। उस खण्डन के पोछे यही उद्देश्य रहा है कि जो धर्म शिवसुखप्रदाता है उस धर्म का ग्रहण उसकी पूरी परीक्षा करके ही होना चाहिए । विष्णु और महादेव ने न मेरा कुछ बिगाड़ा है और न जिनेन्द्र भगवान ने मुझे कुछ दिया है । मेरा तो केवल यही निवेदन है कि जो सत्पुरुष है वे कुगति की प्रवृत्ति कराने वाले मार्ग (धर्म) को छोड़कर सुगति में ले जाने वाले मार्ग का आश्रय करें जिससे वे नरकादि दुःखों से मुक्त हो सकें।
न बुद्धि गर्वेण न पक्षपाततो मयान्यशास्त्रार्थ विवेचनं कृतं । ममैव धर्म शिवसौख्यदायिके परीक्षितुं केवलमुत्थितः भ्रमः ।। 10 ।। अहारि कि केशवशंकरादिभिः व्यतारि किं वस्तु जिनेन चार्थिनः । स्तुवे जिनं येन निषिध्य तानहं बुधा न कुर्वन्ति निरर्थकां क्रियाम ।। II ।। विमुच्य मार्ग कुगतिप्रवर्तकं श्रयन्तु सन्तः सुगतिप्रवर्तक । चिराय माभूदखिलांगतापकः परोपतापो नरकादिगामिनाम् ।। 12 ।।
अतः धर्मपरीक्षा में प्रस्तुत विषय को मीमांसापूर्वक ग्रहण किया जाना चाहिए। उसके लेखन के पीछे किसी धर्म विशेष का अपमान करने का भाव आचार्यों के मन में कभी नहीं रहा है। प्राणो का कल्याण मात्र करना उनका उद्देश्य रहा है। इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर धर्मपरोक्षा की रचना हुई है । धर्म जैसे सर्वसाधारण और प्रमुखतम तत्व की परीक्षा करके ही उसे धारण किया जाना चाहिए।
धर्मपरीक्षा की इसी परम्परा में प्रस्तुत ग्रन्थ में पौराणिक कथाओं की बेतुकी वातों को उद्घाटित कर उन्हें निरर्थक किंवा अविश्वसनीय सिद्ध करने का प्रयत्न किया गया है। ऐसी कथायें आगमिक व्याख्या साहित्य में अधिक मिलती हैं । नियुक्ति और भाष्य साहित्य में ब्राह्मणों की अतिरंजित पौराणिक आख्यानों पर तीव्र व्यंग्य, धूर्तों के मनोरंजक आख्यान तथा साधुओं को धर्म में स्थिर रखने के लिए लोक प्रचलित कथाओं के विविध रूप मिलते हैं। प्राकृत कथा साहित्य का उद्गम वस्तुतः आगम साहित्य से ही हुआ है । टीका साहित्य में यह प्रवृत्ति और अधिक दृष्टिगोचर होती है। आचार्य हरिभद्र सूरि ने आवश्यक और दशवैकालिक सूत्रों पर टीका लिखते समय तथा समराइच्च कहा और धूर्ताख्यान जैसे जैन कथा ग्रन्थों को रचना करते समय इस बात का अधिक ध्यान रखा है कि लौकिक आख्यानों का अधिकतम उपयोग मिथ्यात्व को दूर करने तथा नैतिकता को प्रतिष्ठापित करने में किया जाये ।
प्राकृत कथा साहित्य का समय लगभग चतुर्थ शताब्दी से प्रारम्भ होता है और सत्रहवीं शताब्दी में समाप्त होता है। इस बीच के साहित्य में कथा,
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