Book Title: Chale Man ke Par
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 15
________________ चलें, मन-के-पार अमृत-मित्र । स्वयं को प्रकृति का सिर्फ उपकरण मानने वाला साधक आहिस्ता-आहिस्ता मन-मुक्त होता जाता है । वह हर उल्टी-सीधी परिस्थिति में भी तटस्थ और जागरूक रहता है । वीतरागता का घर मन-के-पार है । अध्यात्म मन की प्रत्येक सीमा-रेखा के पार है । ___ मन के साथ जुदाई जरूरी है । पर यह बार-बार दुहराने की जरूरत नहीं है कि 'मैं मन नहीं हूँ; मैं मन नहीं हूँ' - यह भी मन की ही खटपट है । यह भी एक सोच ही है । समाधि निर्विकल्प दशा में है । 'मैं मन नहीं हूँ' - यह तो स्वयं मन का ही एक विकल्प है। ध्यान में हुई मन की हर सोच विकल्प को ही निमन्त्रण है । ‘में मनुष्य हूँ' यह कहाँ कहना/जपना पड़ता है । 'मैं देह नहीं हूँ' यह भी बार-बार दोहराना देह का भुलावा नहीं, अपितु देह की स्मृति को तरोताजा करना है । साधकों ने 'मैं देह नहीं हूँ' इसे भी किसी मंत्र की तरह अपना लिया है । मैं ऐसे सैकड़ों साधकों के सम्पर्क में आया हूँ, जो 'देह नहीं हूँ', 'देह नहीं हूँ', कहते-कहते जीवन के सान्निध्य में प्रवेश कर गये हैं, फिर भी उनके देह-लगाव का तापमान घटा नहीं है । वास्तविकता तो यह है कि ध्यान गहरा हो जाने पर देहाभ्यास स्वयमेव न्यूनतर हो जाता है । खरगोश पर करुणा करने वाला हाथी तीन-तीन दिन तक एक टाँग पर खड़ा रह जाता है । उसे कहाँ अपने-आप से बार-बार बोलना पड़ा कि 'मैं देह नहीं हूँ, मन नहीं हूँ' । लक्ष्य को जीवन का सर्वस्व मानने वाला अपने-आप मुक्त हो जाता है, स्वयं के लक्ष्य से भिन्न लक्ष्यों से । “मैं देह नहीं हैं' को हजारों बार बोल चुकने के बाद भी ध्यान में बैठा आदमी अपने शरीर पर मच्छर की काट भी सहन नहीं कर पाता । एक मच्छर की काट से बौखलाने वाले साधक की क्या कोई सहिष्णु-अस्मिता हो सकती है ? उपसर्गजयी /कष्टजयी कहलाने वाला साधक मच्छर से भी बिदक जाए, वह देहानुभूति-शून्यता नहीं है । जरा देखो, घर में खेल रहे उस बच्चे को । उसके हाथ पर पट्टी बंधी है । हाथ पर कोई घाव है, घाव से दर्द है, पर उसके चेहरे पर उभरती मुस्कराहट को देखकर क्या हम यह सम्बोधि प्राप्त नहीं कर सकते कि उसने देह से अलग रहकर जीने की कला हासिल कर ली है ? शरीर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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