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चलें, मन-के-पार
___ मन व्यक्त भी रहता है और अव्यक्त भी । मन का अव्यक्त रूप ही चित्त है । मन का काम बाहरी जिन्दगी और तौर-तरीकों से जुड़ा रहता है । मन भविष्य के आकाश में ही कूद-फाँद करता है, जबकि चित्त अतीत से वर्तमान का साक्षात्कार है । पूर्व स्मृतियों और पूर्व संस्कारों के बीज चित्त की धरती पर ही रहते हैं । पूर्वजन्म के वृतान्त भी चित्त की मदद से ही आत्मसात् होते हैं ।
ध्यान की एकाग्रता जितनी गहरी होती चली जाएगी, अन्तर के पर्दे पर चित्त के सारे संस्कार चलचित्र की भांति साफ-साफ, दिखाई देने लग जाएँगे । स्वयं के पहले जन्म/जीवन की घटनाओं का दर्शन और कुछ नहीं, मात्र चित्त के संस्कारों का छायांकन है । 'जाति-स्मरण' अतीत के प्रति चित्त का गहराव है; किन्तु भविष्य का दर्शन चित्त के जरिये नहीं हो सकता । चित्त भविष्य या वर्तमान के दर्शन को अतीत की कड़ी बनाता है । भविष्य मन का परिसर है । मन की एकाग्रता सध जाए, तो व्यक्ति को अपने भविष्य के कुछ संकेत अग्रिम प्राप्त हो सकते हैं ।
___ध्यान का सम्बन्ध चित्त की बजाय मानसिक क्रियाओं से ज्यादा है; इसलिये मन की शुद्धि ध्यान के लिए अनिवार्य है । मगर ध्यान की परिपूर्णता चित्त को संस्कार-शून्य करने में है । मन-रिक्त व्यक्ति अनिवार्यतः मुक्त पुरुष हो जाता है । चित्त-शून्यता से ही मन-मुक्तता की अनुभूति होती है; इसलिए मन-की-शुद्धि और चित्त-की-शुद्धि दोनों आवश्यक हैं समाधि और कैवल्य के द्वार पर दस्तक के लिए ।
___ ध्यान के क्षणों में जो मन की छितराहट दिखाई देती है, उससे व्यक्ति को न तो घबराना चाहिए और न ही उखड़ना चाहिए । उसे तो उससे जागना चाहिये । परम जागरण ही ध्यान-सिद्धि की आधार शिला है । ध्यान की घटिकाओं में होने वाली चंचलता व्यक्ति की ध्यान-दशा नहीं, अपितु स्वप्न-दशा है । चंचलता चाहे ध्यान में हो या स्वप्न के रूप में नींद में हो, वह फंतासी मन का ही फितूर है ।
__ मन द्वारा किया जाने वाला पर्यटन स्वप्न-दशा का ही रूपान्तरण है । फर्क मात्र इतना है कि पहले में शरीर और मन दोनों जाग्रत रहते
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