Book Title: Chale Man ke Par
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 12
________________ चलें, मन-के-पार नहीं, वरन मनोतत्त्व है । मन का अपना मौखिक/मौलिक अस्तित्व नहीं है । वह बेसिर-पांव का तत्त्व है । मनुष्य ने मन एवं मन-के-साथ नाना मसीबतें पाल रखी हैं । वह दुनिया से अपना कोई पाप छिपा भी ले, पर मन से छिपाना उसके वश के बाहर है । वह दूसरों की, किसी तरह अपनी आँखों में भी धूल झोंक सकता है, पर मन सहस्राक्षी है । मन की हजार आँखें हैं । उसमें कुछ भी गोपनीय नहीं रखा जा सकता । जगत् की आपाधापी से तंग आकर मनुष्य चाहे जहां पलायन कर जाए, पर मन से बचकर कहां भागेगा ? बाहर की घुटन से मुक्त होने के लिए बातों-ही-बातों में प्रयास हो जाते हैं, पर भीतर की घुटन से छुटकारा पाने के लिए वह कोई भी मोर्चा तैयार नहीं कर पाता । जनता की भीड़ से अधिक घातक, विचारों की भीड़ है । विचारों की भीड़ से मन का जी लगता भी है, तो घुटता भी है । मनुष्य को जो चिन्ता, तनाव और घुटन विचारों की भीड़ के कारण होती है, वह जनता की भीड़ में नहीं होती । जनता की भीड़ से बचने के लिए गुफा में एकान्तवास हो सकता है; किन्तु विचारों की भीड़-भड़क्के से बचने के लिए दुनिया में न कहीं कोई गुफा है, न एकान्त । जनता की गरद अपने आजू-बाजू रहे, तो कोई नुकसान नहीं है, पर विचारों की भरमार से घुटन-ही-घुटन है । विचारों की घुटन ही मानसिक तनाव की खास धमनी स्वास्थ्य-लाभ के लिए मन को तनाव-मुक्त करना जरूरी है । स्वास्थ्य की पूर्णता शरीर के साथ-साथ मन की तनाव-मुक्ति से जुड़ी है । तनाव-मुक्त पुरुष स्वस्थ अध्यात्म-पथ का पथिक है । जो मन की परेशानी से जकड़ा हुआ है, वह तन से तन्दुरुस्त और निरोग भले ही हो, पर मानसिक रूप से अपने-आपको हर-हमेशा उखड़ा-उखड़ा-सा/उचटा-उचटा-सा महसूस करता है। दिलचस्प बातों में घड़ी-दो-घड़ी वह पद्मासन लगाये लगता है; किन्तु आम तौर पर वह लंगूर छाप जीवन बिताता है । एक ठाँव पर उसके पाँव टिके रहें, ऐसा मनुष्य को अपने अनुभवों की किताब में पढ़ने में नहीं आता । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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