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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
पञ्चतिक्तकषायः।
पश्चकोलम्। क्षुद्रामृताभ्यांसह नागरेण सपौष्करं चैव किराततिक्तम्। पिप्पलीपिप्पलीमूलचव्यचित्रकनागरम् । पिबेत्कषायं त्विह पञ्चतिक्तं ज्वरं निहन्त्यष्टविधं समग्रम् दीपनीयः स्मृतो वर्गः कफानिलगदापहः ॥१३५ ॥
छोटी कटेरी, गुर्च, सोंठ, पोहकरमूल व चिरायताका बनाया | छोटी पीपल, पिपरामूल, चव्य, चीतकी जड, सौंठ यह गया क्वाथ समस्त ज्वरोको नष्ट करता है। इसे · पञ्चतिक्त' पञ्चकोल' कफवातजन्य रोगोंको नष्ट करनेवाला तथा अग्निको कषाय' कहते हैं । १२९॥
दीप्त करनेवाला है ॥ १३५॥ कटुकीचूर्णम् ।
पिप्पलीक्वाथः। सशर्करामक्षमात्रां कटुकामुष्णवारिणा ।
पिप्पलीभिः शृतं तोयमनभिष्यन्दि दीपनम् । . पीत्वा ज्वरं जयेज्जन्तुः कफपित्तसमुद्भवम् ॥१३०॥ वातश्लेष्मविकारघ्नं प्लीहज्वरविनाशनम् ॥ १३६ ॥ एक तोलो कुटकीका चूर्ण बराबर मिश्री मिलाकर गरम छोटी पीपलका क्वाथ छिद्रोंको साफ कर वातकफजन्यरोग जलसे पीनेसे कफपित्तज्वर शान्त होता है ॥ १३०॥ तथा प्लीहा और ज्वरको नष्ट करता है॥ १३६॥ धान्यादिः।
- आरग्वधादिक्वाथः। दीपनं कफविच्छेदि वातपित्तानुलोमनम्। . आरग्वधप्रन्थिकमुस्ततिक्ताज्वरघ्नं पाचनं भेदि शृतं धान्यपटोलयोः ॥१३१॥ हरीतकीभिः क्वथितः कषायः।
धनियां तथा परवलकी पत्तीका क्वाथ कफनाशक, अग्निदीपक, सामे सशूले कफवातयुक्ते पाचन, दस्तावर, ज्वरनाशक तथा वातपित्तका अनुलोमन | ज्वरे हितो दीपनपाचनश्च ॥ १३७ ॥ करता है ॥ १३१॥
अमलतासका गूदा, पिपरामुल. नागरमोथा. कुटकी तथा वातश्लेष्मज्वरचिकित्सा।
बड़ी हर्रके छिलकेसे बनाया गया क्वाथ आम तथा शुलयुक्त
कफवातज्वरको नष्ट करनेवाला, दीपन तथा पाचन है ॥१३॥ कफवातज्वरे स्वेदान्कारयेद्क्षनिर्मितान् । स्रोतसां मार्दवं कृत्वा नीत्वा पावकमाशयम् ।
क्षुद्रादिक्वाथः। हत्वा वातकफस्तम्भं स्वेदो ज्वरमपोहति ॥१४२॥ क्षुद्रामृतानागरपुष्कराह्वयैः कफवातज्वरमें रूक्ष पदार्थोंसे पसीना निकालना चाहिये ।
कृतः कषायः कफमारुतोद्भवे। पसीना निकालना छिद्रोंको मुलायम कर अग्निको अपने स्थानमें
सश्वासकासारुचिपार्श्वरुक्करे ला वातकफकी जकड़ाहटको दूर कर ज्वरको नष्ट करता है॥१३२॥
ज्वरे त्रिदोषप्रभवे च शस्यते ॥ १३८ । वालुकास्वेदः।
छोटी कटेरी, गुर्च, सोंठ तथा पोहकरमूलसे बनाया गया
काथ श्वास, कास, अरुचि, पसुलियोंकी पीड़ा सहित कफवातखपरभृष्टपटस्थितकालिकसिक्तो हि वालुकास्वेदः। जन्य ज्वरमें तथा त्रिदोषज्वरमें भी अधिक लाभ करता है १३८ शमयति वातकफामयमस्तकशूलाङ्गभङ्गादीन् ॥१३३॥ खपरेमें गरम की हुई बालको कपड़ेमें रख काजीमें डुबोकर |
दशमूलक्वाथः। सेंक करनेसे वातकफजन्य रोग, मस्तकशूल तथा शरीरकी पीड़ा| दशमूलीरसःपेयः कणायुक्तः कफानिले । आदि रोग नष्ट होते हैं । १३३ ॥
अविपाकेऽतिनिद्रायां पार्श्वरुक्श्वासकासके ॥१३९॥ मुस्तादिकाथः।
दशमूलका क्वाथ पीपलका चूर्ण मिलाकर पार्श्वशूल, श्वास,
| कास तथा आमयुक्त कफवातज्वरमें देना चाहिये ॥ १३९॥ मुस्तनागरभूनिम्बं त्रयमेतभिकार्षिकम् । कफवातामशमनं पाचनं ज्वरनाशनम ॥ १३४॥
मुस्तादिक्वाथः। नागरमोथा, सोंठ, चिरायता तीनों एक एक तोला ले काथ
ची सदुरालभा। बनाकर पिलानेसे आमको पचाकर कफवातज्वरको शान्त कफवातारुचिच्छर्दिदाहशोषज्वरापहः॥ १४०॥ करता है ॥ १३४ ॥
नागरमोथा, पित्तपापड़ा, सोंठ, गुर्च और यवासाका क्वाथ
कफवातजन्य अरुचि, वमन, दाह मुखका सूखना और ज्वरको १ दोनों मिलकर एक तोला होना चाहिये ।
नष्ट करता है ॥ १४ ॥