Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 301
________________ (२७४ ) रखना चाहिये । यह शिरोबस्ति वातज शिरोरोग, हनु, मन्या, कान व नेत्रकी पीड़ा, अर्दित, शिरका कम्पना आदि नष्ट करती है । सामान्य दशा में तैलसे शिर भरकर कफमें ५०० मात्रा उच्चारण काल पित्त ८०० और वातमें १००० मात्रा उच्चारण तक रखना चाहिये । यही विधि कान और आंख में भरनेकी है ॥ ३-७ ॥ चक्रदत्तः । पैत्तिक में घी व दूधका सिञ्चन, नस्य तथा शीतल लेप जीवनीय घृत तथा पित्तनाशक भोजन व पानका प्रयोग करना चाहिये । तथा ठीक स्नेहन कर विरेचन देना चाहिये । विरेचनके लिये मुनक्का, त्रिफला, ईखका रस, दूध और घृतका प्रयोग करना चाहिये । तथा १०० बार धोये घीकी मालिश, शीतवायु सवन, शीत स्पर्श सदा दाह और पीड़ाकी शान्ति के लिये करना चाहिये । तथा चन्दन, खश, मौरेठी, खरेटी, कटेरी, नख, नीलोफर, दूध में पीसकर लेप करना चाहिये । अथवा काथ बना ठण्डा कर सिञ्चन करना चाहिये । इसी प्रकार शीतल वहयुक्त कमलकी डण्डी, कमलके तन्तु, भैंसीड़ा, चन्दन, नीलाफर व कमलके केशरका अथवा आंवला और नीलोफरका लेप करना चाहिये ॥ ८-१२ ॥ [ शिरोरोगा पैत्तिकचिकित्सा । पैत्ते घृतं पयःसेकाः शीतलेपाः सनावनाः । जीवनीयानि सर्पषि पानान्नं चापि पित्तनुत् ॥८॥ पित्तात्मके शिरोरोगे स्निग्धं सम्यग्विरेचयेत् । मृद्वीका त्रिफलेक्षूणां रसैः क्षीरैर्धृतैरपि ॥ ९ ॥ शतधौत घृताभ्यङ्गः शीतवातादिसेवनम् । शीतस्पर्शाश्च संसेव्याः सदा दाहार्तिशान्तये ॥ १० चन्दनोशीरयष्टयाह्नबलाव्याधीनखोत्पलैः । क्षीरपिष्टैः प्रदेहः स्याच्छृतैर्वा परिषेचनम् ॥ ११ मृणाल बिशालूकचन्दनोत्पलकेशरैः । स्निग्धशीतैः शिरो दिद्यात्तद्वदामलकोत्पलैः ॥ १२॥ कफजे लङ्घनं स्वेदो रूक्षोष्णैः पाचनात्मकैः । तीक्ष्णा पीडा धूमाच तीक्ष्णाश्च कवला हिता: १६ ॥ अच्छं च पाययेत्सर्पिः पुराणं स्वेदयेत्ततः । मधूकसारेण शिरः स्विन्नं चास्य विरेचयेत् ॥ १७ ॥ कफज में लंघन, रूक्ष उष्ण तथा पाचनात्मक पदार्थोंसे स्वेदन, तीक्ष्ण नस्य, तीक्ष्ण धूम तथा कवल हितकर है। अकेले पुराना घी पिलाकर स्वेदन करना चाहिये फिर महुआके सारसे शिरोविरेचन करना चाहिये ॥ १६ ॥ १७ ॥ | ॥ कृष्णादिलेप: । नस्यम् । यष्टयाह्नचन्दनानन्ताक्षीरसिद्धं घृतं हितम् । नावनं शर्कराद्राक्षामधुकैर्वापि पित्तः ॥ १३ ॥ त्वक्पत्रशर्करापिष्टा नावनं तण्डुलाम्बुना 1 क्षीरसर्पिर्हितं नस्यं रसा वा जाङ्गला शुभाः || १४ || मोरेठी, चन्दन, बासा, और दूधसे सिद्ध घृत अथवा शक्कर मुनक्का व मौरेठीसे सिद्ध घृतका नस्य पैत्तिकमें देना चाहिये । अथवा दालचीनी, तेजपातका शक्करको पीसकर चावल के धोवनके साथ नस्य लेना अथवा दूध व घीका नस्य अथवा जांगल प्राणियों के मांसरसका नस्य लेना चाहिये ॥ १३ ॥ १४ ॥ रक्त चिकित्सा | रक्तजे पित्तवत्सर्वं भोजनालेपसेचनम् । शीतोष्णयोश्च व्यत्यासो विशेषो रक्तमोक्षणम् १५ ॥ रक्तज में पित्तके समान ही सब भोजन आलेप और सेचन करना चाहिये। व उष्ण प्रयोग बदल बदल करना चाहिये । तथा रक्तमोक्षण करना चाहिये ॥ १५ ॥ कफजचिकित्सा | कृष्णान्दशुण्ठीमधुकशताह्वोत्पलपाकलेः । जलपिष्टैः शिरोलेपः सद्यः शूलनिवारणः । १८ ॥ छोटी पीपल, नागरमोथा, सोंठ, मौरेठी, सौंफ, नीलोफर और कूठको जलमें पीसकर लेप करने से शीघ्र ही सिरदर्द शान्त होता है ॥ १८ ॥ देवदार्वादिलेपः । देवदारु नतं कुष्ठं नलदं विश्वभेषजम् । लेपः काञ्जिकसंपिष्टस्तैलयुक्तः शिरोऽर्तिनुत् ॥ १९ ॥ देवदारु, तगर, कूठ, जटामांसी व सोंठको काजीमं पीस तैल मिलाकर लेप करना सिरदर्दको शान्त करता है ॥ १९ ॥ सन्निपातज चिकित्सा । सन्निपातभवे कार्या दोषत्रयहरी क्रिया । सर्पिष्पानं विशेषेण पुराणं त्वादिशन्ति हि ॥ २०॥ सन्निपातजमें त्रिदोषनाशक चिकित्सा करनी चाहिये । तथा विशेषकर पुराना घी पिलाना उत्तम है ॥ २० ॥ किट्वादिकाथनस्यम् । त्रिकटुकपुष्कररजनीरास्नासुरदारुतुरगगन्धानाम् । काथः शिरोऽर्तिजालं नासापीतो निवारयति ॥ २१ ॥ त्रिकटु, पोहकरमूल, हल्दी, रासन, देवदारु व असगन्धका काथ नासिकासे पीनेसे शिरकी पीड़ाको नष्ट करता है ॥ २१ ॥

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