Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 355
________________ (३२८) चक्रदत्तः। - [अनुवासना और छः वर्षके बालकके लिये ६ अंगुल, बारह वर्षवालेके लिये 'निरूहदानेऽपि विधिरयमेव समीरितः। ८ अंगुल और २० वर्षवालेके लिये १२ अंगुलका नेत्र (नल)। ततः प्रणिहिते स्नेहे उत्तानो वाक्शतं भवेत् । बनाना चाहिये और उनमें क्रमशः मूंग, मटर और छोटे बेरके प्रसारितैः सर्वगात्रैस्तथा वीर्य प्रसर्पति ॥ १८॥ बराबर छिद्र होना चाहिये । नेत्रका मुख बत्तीसे बन्द रखना आकुञ्चयेच्छनस्त्रिस्त्रिः सक्थिबाहू ततःपरम् । चाहिये, तथा अवस्थाके अनुसार न्यूनाधिकका भी निश्चय ताडयेत्तलयोरेनं त्रीस्त्रीन्वाराञ्छनैः शनैः ॥ १९॥ करनी चाहिये । नेत्र सामान्यतः मूलमें अँगूठेके समान और अग्रभागमें कनिष्ठिकाके समान मोटा, गोपुच्छसदृश चढा उतार स्फिचोश्चैनं ततः श्रोणिं शय्यां त्रिरुरिक्षपेच्छनैः। तथा चिकना बनाना चाहिये और मुखपर गुटिका बनानी एवं प्रणिहिते बस्ती मन्दायासोऽथ मन्दवाक् ॥२० चाहिये। अग्रभागमें जो कर्णिका बनायी जाय, वह चौथाई अस्तीर्णे शयने काममासीताचारिके रतः हिस्सा आगेका छोड़कर बनाना चाहिये और मूलमें बस्ति | योज्यः शीघ्र निवृत्तेऽन्यःतिष्ठन्न कार्यकृत् ॥ २१ ॥ बांधनेके लिये २ कर्णिका ( कंगूरा) रहना चाहिये । बस्तिं थोड़ा चला फिराकर दस्त व लघुशंका साफ हो जानेपर पुराने बैल, भैंस, हरिण, सुआ या बकरेकी दृढ, पतली, शिरा- सुखदायक, न वहुत ऊची, न बहुत ऊंचे तकियेवाली शय्यापर औरहित, कषायरङ्गसे रङ्गी हई. मुलायम, शुद्ध तथा रोगीकी | रोगीको वाम करबट लिटा, दहिना पैर समेट वाम पैर फैलाकर अवस्थाके अनुसार लेनी चाहिये और उसे सत्रसे नेत्रमें बांधना | वैद्यको वाम हाथमें बस्ति लेकर दहिने हाथसे दबाना चाहिये । चाहिये ॥ ७-११॥ बस्ति देनेके पहिले नेत्रमें तथा गुदामें स्नेह लगा लेना चाहिये तथा बस्तिका मुख फुला औषध भरकर बांध देना चाहिये। - निरूहानुवासनमात्रा। फिर हाथ न कंपाते हुए न बहुत जल्दी न बहुत देरमें न बडे निरूहमात्रा प्रथमे प्रकुञ्चो वत्सरात्परम् ।। वेगसे न मन्द ही एक बारगी (आगे मुखकी बत्ती निकालकर ) प्रकुश्चवृद्धिः प्रत्यब्दं यावत्षट्प्रसृतास्ततः ॥ १२॥ दबाना चाहिये तथा कुछ औषध रख छोड़ना चाहिये । क्योंकि शेषमें वायु रहती है । निरूहदानकी भी यही विधि है । इस प्रसृतं वर्धयेदूर्ध्व द्वादशाष्टादशस्य तु । प्रकार स्नेहबस्ति देनेपर १०० मात्रा उच्चारण कालतक समस्त आसप्ततेरिदं मानं दशैव प्रसृताः परम् ॥ १३ ॥ | अङ्ग फैलाकर उताने सोना चाहिये । इस प्रकार औषधकी शक्ति यथायथं निरूहस्य पादो मात्रानुवासने । बढती है । इससे अनन्तर ३ बार धीरे धीरे हाथ, पैर समेटना ब निरूहणकी मात्रा प्रथम वर्ष ४ तोला, फिर प्रतिवर्ष ४ फैलाना चाहिये तथा तीन तीन बार पैरके तलुवों तथा चूतडोंको तोला बढाना चाहिये जबतक ४८ तोला न हो जाय। और फिर ठोकना चाहिये, फिर ३ बार धीरे धीरे शय्या तथा कमर प्रति वर्ष ८ तो० वढाना चाहिये, जबतक कि ९६ तो० न हो उठाना चाहिये तथा बस्ति दे देनेपर कम परिश्रम करना तथा जाय। इस प्रकार १८ वर्षसे ७० बर्षतक यही मान अर्थात कम बोलना चाहिये । बिछी हुई चारपाईपर सुखपूर्वक बैठना ९६ तो० रखना चाहिये । तथा ७० वर्षके बाद ८० तोला या सोना चाहिये । पर आचारका ध्यान रखना चाहिये । की ही मात्रा देनी चाहिये । निरूहणकी चतुर्थाश मात्रा अनु-| | स्नेहबस्तिद्वारा प्रमुक्त स्नेहके शीघ्र ही निकल जानेपर शीघ्र ही वासन बस्तिकी देनी चाहिये । (क्वाथप्रधान बस्तिको “निरू- | फिर स्नेहबस्ति देना चाहिये । क्योंकि स्नेह बिना कुछ देर रुके हणबस्ति "और स्नेहप्रधान बस्तिको “अनुवासन बस्ति " कहते | कार्यकर नहीं होता ॥ १४-२१॥ हैं)॥१२॥१३॥ सम्यगनुवासितलक्षणम् । बस्तिदानविधिः। सानिलः सपुरीषश्च स्नेहः प्रत्येति यस्य वै । कृतचक्रमणं मुक्तविण्मूत्रं शयने सुखे ॥ १४ ॥ विना पीडां त्रियामस्थःस सम्यगनुवासितः ॥२२॥ नात्युच्छूिते न चोच्छीर्षे संविष्टं वामपार्श्वतः। जिसका स्नेह ९ घण्टेतक रहकर विना पीड़ा किये वायु संकोच्य दक्षिणं सक्थि प्रसार्य च ततोऽपरम। और मलके साथ निकलता है, उसे ठीक अनुवासित बस्ति सव्ये करे कृत्वा दक्षिणेनावपाडयेत् ॥ १५॥| समझना चाहिये ॥ २२ ॥ तथास्य नेत्रं प्रणयेत्स्निग्धे स्निग्धमुखं गुदे । | अनुवासनोत्तरोपचारः। उच्छ्वास्य बस्तेर्वदनं बद्ध्वा हस्तमकम्पयन्॥१६॥ क्वाथार्धमात्रया प्रातर्धान्यशुण्ठीजलं पिबेत् । पृष्ठवंशं प्रति ततो नातिदुतविलम्बितम् । पित्तोत्तरे कदुष्णाम्भस्तावन्मानं पिबेदनु ॥ २३ ॥ नातिवेगं न वा मन्दं सकृदेव प्रपीडयेत् । तेनास्य दीप्यते वह्निर्भक्ताकाङ्क्षा च जायते । सावशेषं प्रकुर्वीत वायुः शेषे हि तिष्ठति ॥ १७॥ अहोरात्रादपि स्नेहः प्रत्यागच्छन्न दुष्यति ॥२४॥

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