Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 357
________________ - - - अथ निरुहाधिकारः। (३३०) चक्रदत्तः। [निरूहासन्न्च्न्न् अतिस्निग्ध, उरःक्षती, बहुत पतले, आमातिसारी, वमन- वस्त्रपूतस्तथोष्णाम्बुकुम्भीबाष्पेण तापितः । वाले, संशुद्ध, नस्य लेनेवाले, श्वास, कास, हृलास, प्रसेक एवं प्रकल्पितो बस्तिादशप्रसृतो भवेत् ॥७॥ (मुखसे पानी आना ) अर्श, हिक्का, आध्मान, मन्दाग्नि तथा पहिले १ तोला महीन पिसा सेंधानमक किसी पत्थर या कांचके गुदशूलसे पीड़ित, आहार किये हुए, बद्धोदर, छिद्रोदर और पात्रमें छोड़ १६ तो० शहद मिला मथकर१६तो. स्नेह मिलाकर दकोदरवाले तथा कुष्ठी व मधुमेही तथा सात मासकी गर्भिणी फिर मथना चाहिये । इस प्रकार स्नेह मिल जानेपर ८ तोला इन्हें आस्थापनबस्ति न देनी चाहिये, । किंतु जिनके लिये कल्क छोडकर फिर मथना चाहिये । फिर कल्क मिल जानेपर आस्थापनका निषेध किया गया है, उनके लिये सर्वथा निषेध क्वाथ ४० तोला छोड़ना चाहिये । फिर अन्तमें १६ तो. ही न मान लेना चाहिये । क्योंकि विरुद्ध क्रिया भी कभी | प्रक्षेप छोड़ना चाहिये । फिर इसे महीन कपड़ेसे छानकर गरम अत्यावश्यक होनेपर अनुकूल अतएव कर्तव्य हो जाती है। जल भरे हुए घड़ेके ऊपर रखकर उसी जलकी भाफसे गरम यथा अवस्थाविशेषमें छर्दि, हृद्रोग व गुल्मवालोंके लिये वमन करना चाहिये । इस प्रकार सिद्ध बस्ति “ द्वादशप्रसृतिक" कही और कुष्टवालोंके लिये वस्ति कही गयी है ॥ ३८-४२ ॥ जाती है। इसमें १ तो० सैंधवको छोड़कर शेष १२ प्रस्त इत्यनुवासनाधिकारः समाप्तः । (९६ तो०) द्रव्य होते हैं ॥ ४-७ ॥ सुनियोजितबस्तिलक्षणम् । न धावत्योषधं पाणिं न तिष्ठत्यवलिप्य च । न करोति च सीमन्तं स निरूहः सुयोजितः ॥८॥ सामान्यव्यवस्था । औषध हाथों में न चिपके तथा लिपकर एक जगह बैठ न जाय और न किनारे बने । यह "सुनियोजित" बस्तिके अनुवास्य स्निग्धतर्नु तृतीयेऽह्नि निरूहयेत् । लक्षण हैं ॥८॥ मध्याह्ने किञ्चिदावृत्ते प्रयुक्ते बलिमङ्गले ॥१॥ अभ्यक्तस्वेदितोत्सृष्टमलं नातिबुभुक्षितम् । बस्तिदानविधिः। मधुस्नेहनकल्काख्यकषायावापतः क्रमात् ॥२॥ पूर्वोक्तेन विधानेन गुदे बस्ति निधापयेत् । त्रीणि षड् द्वे दश त्रीणि पलान्यनिलरोगिषु ।। त्रिंशन्मात्रास्थितो बस्तिस्ततस्तुत्कटको भवेत् ॥९॥ पित्ते चत्वारि चत्वारि द्वे द्विपञ्चचतुष्टयम् ॥३॥ जानुमण्डलमावेष्टय कुर्य्याच्छोटिकया युतम् । षट् त्रीणि द्वे दश त्रीणि कफे चापि निरूहणम् । निमेषोन्मेषकालो वा तावन्मात्रा स्मृता बुधैः ॥१०॥ अनुवासनबास्तद्वारा निग्ध पुरुषको तीसरे दिन निरूहण द्वितीयं वा तृतीयं वा चतुर्थ वा यथार्थतः । बस्ति देना चाहिये । उसका क्रम यह है कि कुछ दो पहर लोट सम्यक निरूढलिङ्गेतु प्राप्ते बस्ति निवारयेत्॥११॥ जानेपर बलि मंगलाचरण आदि कर मालिश तथा स्वेदन करा पूर्वोक्त ( अनुवासनोक्त ) विधानसे गुदामें बस्ति देना मलत्याग किये हुए पुरुषको जिसे अधिक भूख न हो, उसे चाहिये । बस्तिदानके अनन्तर ३० मात्रा उच्चारणकालतक आस्थापन बस्ति देना चाहिये । आस्थापन बस्तिमें वातरोगीक वैसे ही रहकर फिर उटकुरुवा बैठना चाहिये । जानुमण्डलके लिये शहद १२ तो०, स्नेह २४ तो०, कल्क ८ तो०, क्वाथ ऊपर हाथ घुमाकर चुटकी बजाना या निमेषोन्मेष (पलक ४० तो० और प्रक्षेप १२ तो० छोड़ना, । पित्तरोगीके लिये खोलना बन्द करना ) के समान कालको १ "मात्राकाल" कहते शहद १६ तो०, स्नेह १६ तो, कल्क ८ तो०, क्वाथ ४० हैं। इस प्रकार ३० मात्रा उच्चारण कालतक उत्कट बैठना तोला और आवाप १६ तोला । तथा कफज रोगमें शहद २४ चाहिये । इसके अनन्तर आवश्यकतानुसार दूसरी तीसरी या तो०, स्नेह १२ ती०, कल्क ८ तोला, क्वाथ ४० तो० और चौथी बस्ति देना चाहिये । सम्यङ् निरूढ लक्षण प्रगट होनेप्रक्षेप १२ तोला छोड़कर देना चाहिये ॥ १-३॥ पर बस्ति देना बन्द कर देना चाहिये ॥९-११॥ द्वादशप्रसृतिको बस्तिः। सुनिरूढलक्षणम् । दत्त्वादी सैन्धवस्याक्षं मधुनः प्रसृतद्वयम् ॥४॥ प्रसृष्टविण्मूत्रसमीरणत्वविनिर्मथ्य ततो दद्यात्स्नेहस्य प्रसृतद्वयम् । रुच्यग्निवृद्धयाशयलाघवानि एकीभूते ततः स्नेहे कल्कस्य प्रसृतं क्षिपेत् ॥५॥ रोगोपशान्तिः प्रकृतिस्थता च संमूच्छिते कषाये तु पञ्चप्रसृतसंमितम् । बलं च तत्स्यात्सुनिरूढलिङ्गम् ॥ १२॥ वितरेत्तु यथावापमन्ते द्विप्रसृतोन्मितम् ॥६॥ । अयोगश्चातियोगश्च निरूहेऽस्ति विरिक्तवत् ॥१३॥

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