Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 361
________________ चक्रदत्तः। [धूमा करना चाहिये । फिर धीरेसे खींचकर दोनों ओर ( जिधर| न शुद्धिरूनदशमे न चातिक्रान्तसप्तती । सुविधा हो ) थूकना चाहिये । जबतक औषधका अंश साफ न आजन्ममरणं शस्तः प्रतिमर्शस्तु बस्तिवत् ॥२७॥ हो जावे । इस प्रकार दो तीन बार नस्य देना चाहिये और बारह वर्षसे कम अवस्थामें धूमपान, पांच वर्षसे कम अव. विरेचनके अनन्तर दोषादिके अनुसार स्नेहन नस्य लेना चाहिये। स्थामें कवलधारण तथा दश वर्षसे प्रथम और ७० वर्षके बाद इस प्रकार तीसरे दिन विरेचन लेना चाहिये । बीचमें एक दिन | शदिन करना चाहिये। पर प्रतिमर्श बस्तिके समान जन्मसे नेहननस्य दूसरे दिन विरेचन इस प्रकार ७ बारतक विरेचन- मरण पर्यन्त हितकर है । ( वमन, विरेचन, अनुवासन पस्ति, नस्यका प्रयोग करना चाहिये ॥ १३-२० ॥ आस्थापन बस्ति और नस्य यह"पञ्चकर्म"कहे जाते हैं)२६॥२७ सम्यकस्निग्धादिलक्षणम् । इति नस्याधिकारः समाप्तः । सम्यकस्निग्धे सुखोच्छ्वासस्वप्नबोधाक्षिपाटवम् । रूक्षेऽक्षिस्तब्धता शोषो नासास्ये मूर्धशुन्यता ॥२१ अथ धूमाधिकारः। स्निग्धेऽतिकण्डूगुरुताप्रसेकारुचिपीनसाः। सुविरिक्तेऽक्षिलघुतावक्त्रस्वरविशुद्धयः ॥२२॥ धूमभेदाः। दुर्विरिक्ते गदोद्रेकः क्षामतातिविरेचिते । प्रायोगिकः स्नैहिकश्च धूमो वैरेचनस्तथा । ठीक स्नेहन हो जानेपर सुखपूर्वक उच्छ्वास, निद्रा, होश| कासहरो वामनश्च धूमः पञ्चविधो मतः ॥१॥ और नेत्रोंकी शक्ति प्राप्त होती है । रूक्षणमें (सम्यक् स्नेहन न (१) प्रायोगिक, (२) स्नैहिक, (३) वरेचन, (४) कासहर होनेमें ) नेत्रोंकी जकड़ाहट नासा व मुखमें शोष तथा मस्तक- तथा (५) वमन करानेवाला पांच प्रकारका धूम होता है ॥१॥ शून्यता. डत्पन्न होती है । तथा अतिस्नेहनमें खुजली, भारीपन, मुखसे पानी आना, अरुचि और पीनसरोग उत्पन्न हो जाते हैं। धूमनेत्रम् । तथा सम्यविरेचन हो जानेपर नेत्र हल्के तथा मुख और स्वर ऋजत्रिकोषफलितं कोलास्थ्यग्रप्रमाणितम् । शुद्ध होते हैं। दुविरेचनमें रोगकी वृद्धि तथा अतिविरेचनमें बस्तिनेत्रसमद्रव्यं धूमनेत्रं प्रशस्यते ॥२॥ शुष्कता होती है ॥ २१॥२२ ।। सार्धन्यंशयतः पूर्णो हस्तः प्रायोगिकादिष । नस्यानर्हाः। नेत्रे कासहरे त्र्यंशहीनः शेषे दशाङ्गुलः ॥३॥ बस्तिनेत्रके समान द्रव्यों (सोना, चाँदी आदि ) से सीधा ३ तोयमद्यगरस्नेहपीतानां पातुभिच्छताम् ॥ २३ ॥ स्थानोंसे घूमा हुआ तथा अग्रभागमें बेरकी गुठलीके बराबर भुक्तभक्तशिरःस्नातस्नातुकामसुतासृजाम् ।। छिद्रवाला “धूमनेत्र" उत्तम कहा जाता है। तथा नेत्रकी लम्बाई नवपीनसरोगातसूतिकाश्वासकासिनाम् ।। २४॥ प्रायोगिक धूमके लिये ३६ अंगुल, स्नैहिकके लिये ३२ अंगुल, शुद्धानां दत्तबस्तीनां तथानातवदुर्दिने। वैरेचनिकके लिये २४ अंगुल और कासहरके लिये १६ अंगुल अन्यत्रात्ययिके व्याधौ नैषां नस्य प्रयोजयेत्॥२५॥ तथा वामक धूमके लिये १० अंगुल होनी चाहिये ॥ २ ॥३॥ न नस्यमूनसप्ताब्दे नातीताशीतिवत्सरे । __ धूमपानविधिः। जिन्होंने जल, शराब, कृत्रिम विष अथवा स्नेहपान किया औषधैर्तिकां कृत्वा शरगी विशोषिताम् । है, अथवा जिनकी पीनेकी इच्छा है, अथवा जिन्होंने भात खाया | विगर्भामग्निसंप्लुष्टां कृत्वा धूमं पिबेन्नरः ॥ ४ ॥ या शिरसे स्नान किया है, या स्नान करनेकी इच्छा है, तथा वक्त्रेणैव वमेद् धूम नस्तो वक्त्रेण वा पिबन् । जिनका रक्त निकाला गया है, तथा नये जुखामसे पीड़ित व सूतिका स्त्री तथा श्वास, कासवाले तथा शुद्ध ( वमन विरेचन उरःकण्ठगते दोषे वक्त्रेण धूममापिबेत् ॥ ५॥ द्वारा ) तथा जिन्होंने बस्ति ली है, तथा अनावि, दुर्दिन( वर्षा-1 नासया तु पिबेद्दोषे शिरोधाणाक्षिसंश्रये । कालसे अतिरिक्त मेघोंसे आच्छन्न गगनमण्डलयुक्त दिन ) में| संकको भिगोकर उसके ऊपर ओषधियोंके कल्कका लेप कर परमावश्यकताके सिवाय नस्य न देना चाहिये । तथा ७ वर्षके पर बत्ती बना सुखा सींक अलग निकाल कर बत्ती धूमनेत्रमें पहिले और ८० वर्षके अनन्तर भी नस्य न देना|' रख अग्निसे जलाकर धूम पीना चाहिये । रोगके अनुसार धूम चाहिये ॥ २४ ॥ २५॥ नाक अथवा मुखसे पीना चाहिये । पर धूमका वमन मुखसे ही करना चाहिये । उर तथा कण्ठगत दोषोंमें मुखसे धूम पीना धूमादिकालनिर्णयः। चाहिये । तथा शिर, नासिका और नेत्रोंमें स्थित दोषों में नासिन चोनद्वादशे धूमः कवलो नोनपञ्चमे ॥२६॥ कासे धूम पीना चाहिये ॥ ४ ॥५॥

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