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धिकारः]
भाषाटीकोपतः।
औषधवेग शान्त हो जाने और नेत्रके साफ हो जानेपर व्याधि- कृत्वापाने ततो द्वारं स्नेहं पात्रे निगालयेत् ॥२५॥ दोष तथा ऋतुयोग्य जलसे धोना चाहिये । फिर कपड़े लिपटे| पिबेच धर्म नेक्षेत व्योमरूपं च भास्वरम् । दहिने अंगूठेसे बायां नेत्र और धायें अँगूठेसे दाहिना नेत्र ऊप- इत्थं प्रतिदिनं वाते पित्ते त्वेकान्तरं कफे॥२६॥ रकी विनियां पकड़ कर साफ करना चाहिये । रात्रि तथा |
स्वस्थे च द्वयन्तरं दद्यादातृप्तरिति योजयेत् । मध्याह्नमें अञ्जन नहीं लगाना चाहिये। क्योंकि रात्रिमें सोनेके कारण और मध्याह्नमें अन्नपान तथा सूर्यकी किरणोंके कारण तर्पणका प्रयोग वातरहित स्थानमें शिर और शरीरके शुद्ध बढे हुए पीड़ित तथा चलित दोष नेत्ररोग उत्पन्न कर देते हैं। होनेपर साधारण समयमें प्रातः और सायंकाल उत्तान सुलाकर अतः सदा निर्मल आकाश होनेपर प्रातःकाल तथा सायङ्काल नेत्रकोषके बाहर चारों ओर २ अङ्गुल ऊँची तथा दृढ यव अजन लगाना चाहिये । नेत्रों की खुजली और जकडाहटमें और उड़दके आटेको पानीमें सानकर मेड़ बनाना चाहिये। सीक्ष्णाजन अथवा धूमका प्रयोग करना चाहिये। तथा तीक्ष्णा.|फिर नेत्रोंको बन्दकर दोषों के अनुसार सिद्ध घृत गरम जलके जनसे नेत्रोंमें दाह उत्पन्न हो जानेपर शीघ्र प्रत्यजन (दाहशा-| ऊपर ही गरम कर छोड़ना चाहिये।तथा रतौंधी, वातज तिमिर तथा मक शीतल अञ्जन) लगाना चाहिये ॥११-१७॥
कृच्छ्रबोधादिमें चर्बीका प्रयोग करना चाहिये। फिर धीरे धीरे
नेत्र खोलना और बंद करना चाहिये। तथा तर्पण छोड़कर अञ्जननिषेधः।
विनियोंके रोगमें १०० मात्रा उच्चारणकालतक, संधिभागमें ३०० नायेद्धीतवामितविरिक्ताशितवेगिते ।
मात्रा उच्चारणकालतक, सफेद भागके रोगमें ५०० मात्रा युद्धज्वरितभ्रान्ताक्षशिरोरुक्शोषजागरे ॥१८॥
| उच्चारणकालतक, कृष्णभागमें ७०० मात्रा उच्चारणकालतक,
दृष्टिरोगमें ८०० मात्रा उच्चारणकालतक, मन्थरोगमें १०००, अदृष्टे शिरःस्नाते पीतयोधूममद्ययोः।
अनिलरोगमें १०००, पित्तरोगमें ६००, स्वस्थवृत्तमें ६००, अजीर्णेऽप्यर्कसंतप्ते दिवास्वप्ने पिपासिते ॥ ११ ॥ तथा कफरोगमें ५०० मात्रा उच्चारणकालतक रखना चाहिये ।
डरे हुए, वमन किये हुए, विरेचन किये हए, भोजन किये| फिर अपाङ्गमें (नेत्रके बाहिरी कोनोंमें मेड़का द्वार बनाकर हुए तथा मूत्र पुरीष आदिके वेगसे पीड़ित, क्रोधी, ज्वरवाले, स्नेह किसी पात्रमें गिरा लेना चाहिये । फिर धूमपान करे तथा भ्रान्त नेत्रवाले ( अथवा " तान्ताक्षः" इति पाठः । तस्यार्थः आकाश और प्रकाशयुक्त पदार्थ सूर्यादि) न देखे । इस सूर्य या सूक्ष्म पदाथोंके अधिक देखनेसे विकृत नेत्रवाले ) शिरः प्रकार वायुमें प्रतिदिन, पित्तमें एकदिनका अन्तर देकर तथा शूल, शोषसे तथा जागरणसे पीड़ित तथा शिरसे स्नान किये| कफ और स्वस्थवृत्तके लिये २ दिनका अन्तर देकर जबतक नेत्र हुए अथवा धूम या मद्य पिये हुए तथा अजीर्णसे पीडित तथा तृप्त न हो आवें, प्रयोग करना चाहिये ॥ २०-२६ ॥सूर्यकी गरमीसे सन्तप्त होनेपर तथा दिनमें सोनेपर अनन्तर तथा पिपासित पुरुषोंको अजन न लगाना चाहिये। तथा जिस
तृप्तलक्षणम् । दिन मेघोंसे आच्छन्न होनेके कारण सूर्य न दिखलायी पड़े, उस प्रकाशक्षमता स्वास्थ्यं विशदं लघु लोचनम् ॥२७॥ दिन भी अन्जन न लगाना चाहिये ॥१८॥१९॥
तृप्ते विपर्ययोऽतृप्तेऽतितृप्ते श्लेष्मजा रुजः। तर्पणम् ।
ठीक तर्पण हो जानेपर नेत्र स्वच्छ, हल्के तथा प्रकाश
| देखनेमें समर्थ और स्वस्थ होते हैं। तथा ठीक तर्पण न होनेपर निवाते तर्पणं योज्यं शुद्धयोर्मूर्धकाययोः।
इससे विपरीत और अतितृप्त हो जानेपर कफजन्य रोग उत्पन्न काले साधारणे प्रातः सायं वोत्तानशायिनः ॥२०॥ हो जाते हैं ॥२७॥यवमाषमयीं पाली नेत्रकोषाद्वहिः समाम्।
पुटपाकः। द्वयङ्गुलोचा दृढां कृत्वा यथास्वं सिद्धमावपेत्॥२१ सर्पिनिमीलिते नेत्रे तप्ताम्बु प्रविलायितम् ।
पुटपाकं प्रयुजीत पूर्वोक्तेष्वेव पश्मसु ॥ २८ ॥ नक्तान्ध्यवाततिमिरकृच्छ्रबोधादिके वसाम् ॥२२॥
सवाते स्नेहनः श्लेष्मसहिते लेखनो मतः ॥ २८ ॥ आपल्मायादथोन्मेष:शनकैस्तस्य कुर्वतः।
हग्दौर्बल्येऽनिले पित्ते रक्त स्वस्थ प्रसादनः॥२९॥ मात्रां विगणयेत्तत्र वर्मसन्धिसितासिते ॥२३॥ बिल्वमात्रं पृथक् पिण्डं मांसभेषजकल्कयोः। दृष्टौ च क्रमशो व्याधौ शतं त्रीणि च पञ्च च। । उरुबूकवटाम्भोजपत्रैः स्निग्धादिषु क्रमात् ॥ ३०॥ शतानि सप्त चाष्टौ च दश मन्थेऽनिले दश ॥२४॥ वेष्टयित्वा मृदालिप्तं धवधन्वनगोमयैः । ... . पित्ते षट् स्वस्थवृत्ते च बलासे पञ्च धारयेत् । । पचत्प्रदीप्तरग्न्यानं पकं निष्पीडय तद्रसम् ॥३१॥