Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 356
________________ विकारः ] । कुर्याद्वस्तिगुणांश्चापि जीर्णस्त्वल्पगुणो भवेत् । यस्य नोपद्रवं कुर्यात्स्नेहवस्तिरनिःसृतः ॥ २५ ॥ सर्वोऽल्पो वा वृतो रौक्ष्यादुपेक्ष्यः संविजानता दूसरे दिन षडंगपानीय विधिसे सिद्ध धनियाँ और सोंठका जल क्वाथकी आधी मात्रा में देना चाहिये । तथा पित्तकी प्रधानतामें केवल गुनगुना जल ही देना चाहिये । इससे अग्नि दीप्त होती तथा भोजनमें रुचि होती है । स्नेह यदि ९ घण्टेमें न आकर २४ घण्टेमें आ जावे, तो भी कोई दोष नहीं। होता और बस्तिके गुणोंको करता है । किन्तु स्नेह पच जानेपर गुण कम करता है । पर जिसका रूक्षताके कारण थोड़ा या सभी स्नेह न निकले, उसकी उपेक्षा करनी चाहिये ॥२३-२५॥स्नेहव्यापच्चिकित्सा । भाषाटीकोपेतः । अनायान्तमहोरात्रात्स्नेहं सोपद्रवं हरेत् ॥ २६॥ स्नेहबस्तावनायाते नान्यः स्नेहो विधीयते । अशुद्धस्य मलोन्मिश्रः स्नेहो नैति यदा पुनः || २७॥ तदांगसदनाध्मानशूलाः श्वासश्व जायते । पक्काशयगुरुत्वं च तत्र दद्यान्निरूहणम् ॥ २८ ॥ तीक्ष्णं तीक्ष्णोरेव सिद्धं चाप्यनुवासनम् । स्नेहवस्तिर्विधेयस्तु नाविशुद्धस्य देहिनः ॥ २९ ॥ स्नेहवीर्य तथादत्ते स्नेहो नानुविसर्पति । अशुद्धमपि वातेन केवलेनाभिपीडितम् ॥ ३० ॥ अहोरात्रस्य कालेषु सर्वेष्वेवानुवासयेत् । अनुवासयेत्तृतीयेऽह्नि पञ्चमे वा पुनश्च तम् ||३१|| यथा वा स्नेहपक्तिः स्यादतोऽप्युल्बणमारुतान् । व्यायामनित्यान् दीप्ताग्नीन् रुक्षांश्च प्रतिवासरम् ३२ इति स्नेह त्रिचतुरैः स्निग्धे स्रोतोविशुद्धये । निरूहं शोधनं युञ्ज्यादस्निग्धे स्नेहनं तनोः ॥ ३३ ॥ विष्टव्धानिलविण्मूत्रस्नेहो हीनेऽनुवासने । दाहज्वरपिपासार्तिकरश्चात्यनुवासने ॥ ३४ ॥ रातदिनमें वापिस न आनेवाले तथा उपद्रवयुक्त स्नेहको ( संशोधन बस्तिद्वारा ) निकाल देना चाहिये । तथा स्नेहवस्तिके वापिस न आनेपर अन्य स्नेहबस्ति न देना चाहिये । तथा जिसका संशोधन ठीक नहीं हुआ है, ऐसे पुरुषका मलयुक्त स्नेह वापिस न आनेपर शरीर में शिथिलता, पेटमें गुड़गुड़ाहट, शूल और श्वास उत्पन्न कर देता है । पक्वाशय भारी हो जाता है । ऐसी दशामें तीक्ष्ण निरूहणबस्ति अथवा तीक्ष्ण ओषधियोंसे सिद्ध स्नेहसे अनुवासन बस्ति देना चाहिये । जिसका ठीक शोधन नहीं हुआ, उसे स्नेहवस्ति न देना चाहिये । क्योंकि ऐसी दशा में arent शक्ति नष्ट हो जाती है । अतएव स्नेह फैलता नहीं । परन्तु अशुद्ध पुरुष भी यदि केवल वायुसे पीड़ित हो, तो उसे रात vg ( ३३९ ) जिनके कराना दिन में किसी समय अनुवासन दे देना चाहिये । फिर उसे तीसरे या पांचवें दिन अनुवासन कराना चाहिये । अथवा जैसे स्नेहका परिपाक हो, वैसे ही अनुवासन कराना चाहिये । अतएव वायु अधिक बढा हुआ है, उन्हें तथा कसरत करनेवालों, दीप्तानि और रूक्ष पुरुषोंकों प्रतिदिन अनुवासन चाहिये । इस प्रकार तीन चार स्नेहोंसें स्निग्ध हो जानेपर स्रोतोंकी शुद्धिके लिये शोधन निरूहण बस्ति देना चाहिये और यदि फिर भी स्नेहन ठीक न हुआ हो, तो स्नेहनबस्ति ही देना चाहिये । हीन अनुवासनमें वायु, मल और मूत्र तथा स्नेह स्तब्ध हो जाता है । तथा अति अनुवासनमें दाह, ज्वर, या और बेचैनी होती है ॥ २६-३४ ॥ विशेषोपदेशः । स्नेहवस्ति निरूहं वा नैकमेवातिशीलयेत् । स्नेहात्पित्तकफोत्क्लेशो निरूहात्पवनाद्भयम् ॥ ३५ ॥ स्नेहबस्ति अथवा निरूहणबस्ति एक ही अधिक न सेवन करना चाहिये । केवल स्नेहबस्ति ही लेनेसे पित्त कफकी वृद्धि तथा केवल निरूहणसे वायुसे भय होता है ॥ ३५ ॥ नानुवास्याः । अनास्थाप्या येsभिधेया नानुवास्याश्च ते मताः । विशेषतस्त्वमी पाण्डुकामला मेहपीनसाः ॥ ३६॥ निरन्नप्लीहविड्भेदिगुरुकोष्ठाढयमारुताः ॥ ३७ ॥ पीते विषे गरेऽपच्यां श्लीपदी गलगण्डवान् । जिन्हें आस्थापनका निषेध आगे लिखेंगे, उन्हें अनुवासन भी न करना चाहिये । और विशेषकर पाण्डु, कामला, प्रमेह और पीनसवाले, जिन्होंने भोजन नहीं किया उन्हें, तथा प्लीहा, अतीसारयुक्त, गुरुकोष्ठ कफोदवाले, अभिष्यन्दी, बहुत मोटे, क्रिमिकोष्ठ तथा ऊरुस्तम्भवाले तथा विष पिये हुए अथवा कृत्रिम विष, अपची, श्लीपद और गलगण्डवाले अनुवासनके अयोग्य हैं ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ अनास्थाप्याः । अनास्थाप्यास्त्वतिस्निग्धःक्षतोरस्को भृशं कृशः ॥ ३८ आमातिसारी वमिमान्संशुद्धो दत्तनावनः श्वासकासप्रसेकाशहिकाध्मानात्पवन्हयः ॥ ३९ ॥ शूलपायुः कृशाहारो बद्धच्छिद्रदकोदरी । कुष्ठी च मधुमेही च मासान्सप्त च गर्भिणी ||४० ॥ चैकान्तेन निर्दिष्टेऽप्यत्राभिनिविशेद् बुधः । भवेत्कदाचित्कार्या या विरुद्धापि मता क्रिया ॥ ४१ ॥ छर्दिहृद्रोगगुल्मार्ते वमनं सुचिकित्सिते । अवस्थां प्राप्य निर्दिष्टं कुष्ठिनां बस्तिकर्म च ॥४२५

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