Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 311
________________ (२८५) चक्रदत्तः। वीरोगा बृहच्छतावरीघृतम् । ... तैलं तदिदं शङ्खहारतालचूर्णितं लेपात् । शतावरीमूलतुलाश्चतस्रः संप्रपीडयेत् । निर्मूलयति च रोमाण्यन्येषां सम्भवो नैव ॥६६॥ रसेन क्षीरतुल्येन पचेत्तेन घृताढकम् ॥ ५८ ॥ अमलतासकी जड़ ४ तोला, शंखचूर्ण २ तो०, हरिताल र जीवनीयैः शतावर्या मृद्वीकाभिः परूषकैः। तो०, कटुतैल ४० तो० गधेका मूत्र १ प्रस्थ और जल मिलापिष्टैः प्रियालैश्चाक्षांशैयिष्टीमधुकैभिषक् ॥ ५९॥ कर सिद्ध तेलमें फिर शंख और हरितालका प्रक्षेप छोड़कर लेप करनेसे बालोंको उखाड़ देता है और नये जमते सिद्धशीते च मधुनः पिप्पल्याश्चाष्टकं पलम् । नहीं ॥६५॥६६॥ दत्त्वा दशपलं चात्र सितायास्तद्विमिश्रितम् ॥६०॥ ब्राह्मणान्प्राशयेत्पूर्व लिह्यात्पाणिसलं ततः । . कर्पूरादितलम् । योन्यसृक्शुक्रदोषघ्नं वृष्य पुसवनं च तत् ।। ६१॥ कर्पूरभल्लातकशङ्खचूर्ण क्षतक्षयं रक्तपित्तं कासं श्वासं हलीमकम् । क्षारो यवानां च मनःशिला च । कामलां वातरक्तं च विसपै हच्छिरोग्रहम् । । तैलं विपक्कं हरितालमिश्र उन्मादादीनपस्मारान्वातपित्तात्मकाजयेत् ॥१२॥ रोमाणि निर्मूलयति क्षणेन ॥६७ ॥ शतावरीकी जड़ २० सेर पीस कर रस निकालना चाहिये, कपूर, भिलावां व शंखका चूर्ण, जवाखार, मैनशिल, और उस रसके बराबर दूध मिलाकर घी ६ सेरं ३२ तो० तथा हरिताल मिलाकर पकाया गया तैल क्षणभरमें रोमोंको उखाड़ जीवनीयगणकी ओषधियाँ शतावरी, मुनक्का, फाल्सा, व| देता है ॥ ६७ ॥ चिरौंजी प्रत्येक एक तोला तथा मौरेठी २ तोलेकी कल्क छोड़कर पकाना चाहिये । सिद्ध हो जानेपर उतार छान ठंढा क्षारतैलम् । कर शहद ३२ तोला, छोटी पीपलका चूर्ण ३२ तोला व मिश्री | शुक्तिशम्बूकशंखानां दीर्घवृन्तात्समुष्ककात् । ४० तोला मिलाकर पहिले ब्राह्मणोंको चटाना चाहिये, फिर १] दग्ध्वा क्षारं समादाय खरमूत्रेण गालयेत् ।। ६८॥ तोला स्वयम् चाटना चाहिये । यह योनिरक्त और शुक्रके क्षारार्धभागं विपचेत्तैलं च सार्षपं बुधः । दोषोंको नष्ट करता, बाजीकर तथा बालक उत्पन्न करता है। इदमन्तःपुरे देयं तैलमात्रेयपूजितम् ॥ ६९ ॥ क्षतक्षय, रक्तपित्त, कास, श्वास, हलीमक, कामला, वात बिन्दुरेकः पतेद्यत्र तत्र रोमापुनर्भवः । रक्त, विसर्प, हृदय, और शिरकी जकड़ाहट, उन्माद और अपस्मारादि वातपित्तात्मक रोगोंको नष्ट करता मदनादिवणे देयमश्विभ्यां च विनिर्मितम् ॥ ७० ॥ है॥५८-६२॥ अर्शसां कुष्ठरोगाणां पामाददुविचर्चिनाम् । - क्षारतैलामिदं श्रेष्ठं सर्वक्लेदहरं परम् ॥ ७१ ॥ लोमनाशका योगाः। शुक्ति, घोंघा, शंख, सोनापाठा व मोखा इन सबको जलाके दग्ध्वा शङ्ख क्षिपेद्रम्भास्वरसे तत्त पेषितम्। क्षार बनाकर गधेके पेशाबसे छानना चाहिये । क्षार जलसे आधा तुल्यालं लेपतो हन्ति रोम गुह्यादिसम्भवम् ॥३३॥ भाग सरसोंका तैल मिला पकावे । यह रनिबासमें देना चाहिये। रक्ताजनापुच्छचूर्णयुक्त तेलं तु सार्षपम। इसका एक बिन्दु जहां गिर जाता है, वहां फिर रोवाँ नहीं जमते । मदनादि ( उपदंश ) के घाबमें इसे लगाना चाहिये । इसे सप्ताहं व्युषितं हन्ति मूलाद्रोमाण्यसंशयम् । अश्विनीकुमारने बनाया है । अर्श, कुष्ठ, पामा, दगु और कुसुम्भतैलाभ्यङ्गो वा रोम्णामुत्पाटितेऽन्तकृत् ६४॥ विचर्चिकाको यह तैल नष्ट करता है । यह "क्षारतैल" समस्त शंखकी भस्म कर केलेके स्वरसमें छोड़ना चाहिये । फिर उसमें व्रणोंके मवादको साफ करता है ॥ ६८-७१ ॥ समान भाग हरिताल मिलाकर लेप करनेसे गुह्यादिके लोम नष्ट होते हैं । रक्ताजना ( अन्जननामिका ) की पूँछके चूर्णके ..इति योनिव्यापदधिकारः समाप्तः। साथ सरसोंका तेल ७ दिन रखकर लगानेसे जड़से बाल उड़ जाते हैं। कुसुमके तेलकी मालिश भी रोम नष्ट करने में यम लामामास्वरसे तत्तु पा३३भाएक बिन्दु जहां पर अथ स्त्रीरोगाधिकारः। आरग्वधादितैलम् । । गर्भस्रावचिकित्सा। आरग्वधमूलपलं कर्षद्वितयं च शङ्खचूर्णस्य । | मधुकं शाकबीजं च पयसा सुरदारु च । हरितालस्य च खरजे मूत्रप्रस्थे पक्कञ्च कटुतैलम् ६५/ अश्मन्तकः कृष्णतिलास्ताम्रवल्ली शतावरी ॥१॥

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