Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 347
________________ [ स्नेहा छन्वन्छ (३२०) . चक्रदत्तः। न्छ न् न स्नेहविधिः । अधिक पीकर बमन कर डालना चाहिये । इसी प्रकार जिसका स्नेहसात्म्यः केशसहो दृढः काले च शीतले ॥१॥ स्नेह मिथ्याचार या अधिक होने के कारण हजम न होता हो, अच्छमेव पिबेत्स्नेहमच्छपानं हि शोभनम् । |अथवा ठहर कर हजम होता हो, उसे भी गुनगुना जल पिलाकर पिबेत्संशमनं स्नेहमन्नकाले प्रकाक्षितः ॥ १२ ॥ वमन करा देना चाहिये । कोष्ठ हलका हो जानेपर फिर स्नेह देना चाहिये तथा स्नेह हजम हुआ या नहीं ऐसी शंका गरम शुद्धधर्थ पुनराहारे नैशे जीर्णे पिबेन्नरः। जल पीना चाहिये । गरम जल पीनेसे डकार शुद्ध आती है जिसे स्नेहका अभ्यास है तथा जो स्नेहव्यापत्तिको सहन और अन्नपर रुचि होती है, तथा जिसे स्नेह कल पिलाना है या कर सकता है और दृढ़ है, उसे तथा शीत कालमें केवल स्नेह | नह| आज पिया है या कल पी चुका है, उसे मात्रासे द्रव (पतला), पीना चाहिये । केवल स्नेहपान ही उत्तम है। दोषोंको शान्त उष्ण, अनभिष्यन्दि ( कफको बढाकर छिद्रोंको न भर देनेवाला) करनेके लिये संशमन स्नेह भूख लगनपर भोजनके समय पीना | तथा न अधिक चिकना और न कई अन्न मिले हुए भोजन चाहिये । तथा शाद्धिके लिये रात्रिका आहार पच जानेपर | जाहिरी १०-२०॥ पीना चाहिये ॥ ११ ॥ १२॥ .. स्नेहमर्यादा । मात्रानुपाननिश्चयः। व्यहावरं सप्तदिनं परन्तु अहोरात्रमहः कृत्स्नं दिनाधं च प्रतीक्षते ॥ १३ ॥ स्निग्धः परं स्वेदयितव्य इष्टः। उत्तमा मध्यमा ह्रस्वा स्नेहमात्रा जरां प्रति नातः परं स्नेहनमादिशन्ति उत्तमस्य पलं मात्रा त्रिभिश्चाक्षश्च मध्यमे ॥ १४॥! सात्म्यीभवेत्सप्तदिनात्परं तु ॥ २१ ॥ जघन्यस्य पलार्धेन स्नेहकाथ्योषधेषु च । मृदुकोष्ठस्त्रिरात्रेण स्निह्यत्यच्छोपसेवया । जलमुष्णं घृते पेयं यूषस्तैलेऽनुशस्यते ॥ १५ ॥ नियति क्रूरकोष्ठस्तु सप्तरात्रेण मानवः ॥ २२ ॥ वसामज्ज्ञोस्तु मण्डः स्यात्सर्वेषूष्णमथाम्बु वा। । कमसे कम तीन दिन ( मृदुकोष्ठमें ) अधिकसे अधिक ७ भल्लाते तोवरे नेहे शीतमेव जलं पिबेत ॥ १६॥ दिन ( करकोष्ठमें ) स्नेहन कर स्वेदन करना चाहिये । इससे दिनरातमें हजम होनेवाली स्नेहमात्रा "उत्तम" केवल दिन- अधिक स्नेहन नहीं करना चाहिये । क्योंकि ७ दिनके भरमें हजम होनेवाली "मध्यम" तथा आधे दिनमें हजम होने-बाद स्नेह सात्म्य हो जाता है । मृदुकोष्ठ पुरुष अच्छस्नेहपान कर वाली स्नेहमात्रा "हीन" मात्रा कही जाती है । स्नेह तथा क्वाथ्य | ३ दिनमें और क्रूर कोष्ठवाले ७ दिनमें सम्यक् स्निग्ध हो औषधियोंकी मात्रा क्रमशः उत्तम १ पल (४ तोले ), मध्यम | जाते हैं ॥ २१ ॥२२॥ •३ कर्ष (३ तोले ), हीन २ कर्ष (२ तोले ) है । तथा घृतके वमनविरेचनसमयः। अनन्तर गरम जल, तैलके अनन्तर यूष तथा वसा और मज्जाके स्निग्धद्रवोष्णधन्वोत्थरसभुक्स्वेदमाचरेत् । अनन्तर मण्ड़ अथवा सबके अनन्तर गरम जल ही पीना स्निग्धख्यहं स्थितः कुर्याद्विरेकं वमनं पुनः ॥ २३ ॥ चाहिये । तथा भल्लातकतैल और तुवरकतेलमें शीतल जल ही पीना चाहिये ॥ १३-१६॥ एकाहं दिनमन्यच्च कफमुत्क्वेश्य तत्करैः। स्नेहन हो जानेपर स्नेहयुक्त, द्रव, उष्ण, जांगल प्राणियोंका स्नेहव्यापत्तिचिकित्सा। मांस भोजन करता हुआ ३ दिनतक स्वेदन करे । इस प्रकार स्नेहपीतस्तु तृष्णायां पिबेदुष्णोदकं नरः। ३दिन ठहर कर विरेचन देना चाहिये और यदि वमन कराना एवं चाप्यप्रशाम्यन्त्यां स्नेहमुष्णाम्बनोद्धरेत ॥१७॥ हो, तो एक दिन और ठहर अर्थात् चौथे दिन कफको बढानेवाले मिथ्याचाराद्वहुत्वाद्वा यस्य स्नेहो न जीर्यति । पदार्थ खिला कफ वढाकर वमन कराना चाहिये ॥ २३ ॥विष्टभ्य वापि जीर्येत्तं वारिणोष्णेन वामयेत् ॥१८॥ स्निग्धातिस्निग्धलक्षणम् । ततः स्नेहं पुनर्दद्याल्लघुकोष्ठाय देहिने । वातानुलोम्यं दीप्तोऽग्निवर्चः स्निग्धमसंहतम्॥२४॥ जीर्णाजीर्णविशङ्कायां पिबेदुष्णोदकं नरः ॥१९॥ स्नेहोद्वेगः लमः सम्यक् स्निग्धे रूक्षे विपर्ययः । तेनोद्गारो भवेच्छुद्धो रुचिश्वान्नं भवेत्प्रति । अतिस्निग्धे तु पाण्डुत्वं ब्राणवक्त्रगुदस्रवाः ॥२५॥ भोज्योऽन्नं मात्रया पास्यवः पिबन्पीतवानपि। पर ७ दिनमें भी जिसे ठीक स्नेहन न हो, उसे बाद भी द्रवोष्णमनभिष्यन्दि नातिस्निग्धमसङ्करम् ॥२०॥ स्नेहपान करना चाहिये । जैसा कि वृद्ध वाग्भटने लिखा हैस्नेहपान करनेवालोंको प्यासकी अधिकतामें गरम ही जल " त्र्यहमच्छं मृदा कोष्ठे क्रूरे सप्तदिनं भवेत् । पीना चाहिये, यदि इस प्रकार शान्ति न हो, तो गरम जल सम्यस्निग्धोऽथवा यावदतः सात्म्यी भवेत्परम् ॥" भार क्रूर कोष्ठवाले ७ दिनमें उत्तम १ पल ( ४ तोले '३ कर्ष (३

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