Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 345
________________ ( ३१८ ) उत्तम औषध है । तथा यह कास, श्वास, ज्वर, हिक्का, छर्दि तथा अरुचिको नष्ट करता है । इस "गुड़कूष्मांडक" रसायनका आवि कार भगवान् अश्विनीकुमारोंने किया है। यहां स्विन्नकूष्मांड कका ही द्रव खण्डकूष्माण्डकी तरह १ आढक अथवा जितना निकले लेना चाहिये । इसकी मात्रा २ तोलेसे ४ तोले तक ॥ ३७-४३ ॥ सामान्यवृष्यम् । यत्किञ्चिन्मधुरं स्निग्धं जीवनं बृंहणं गुरु । हर्षणं मनसश्चैव सर्वं तद् वृष्यमुच्यते ॥ जितने द्रव्य, मीठे, चिकने, जीवन, बृंहण, गुरु तथा प्रसन्न रखनेवाले हैं, वे सब " वृष्य " हैं ॥ ४४ ॥ लिंगवृद्धिकरा योगाः । चक्रदत्तः । ४४ ॥ मनको भल्लातक बृहतीफलदाडिमफलवल्कसाधितं कुरुते । लिङ्गं मर्दनविधिना कटुतैलं वाजिलिङ्गाभम् ४५|| कनकरसमसृणवर्तितहयगन्धामूलविश्वपर्युषितम् । माहिषामिह नवनीतं गतबीजे कनकफलमध्ये ॥ ४६ ॥ गोमयगाढोद्वर्तितपूर्व पश्चादनेन संलिप्तम् । भवति हयलिङ्गसदृशं लिङ्गं कठिनाङ्गनादयितम् ४७ भिलावां, बड़ी कटेरीके फल और अनारके फलकी छालके कल्कसे सिद्ध कडुआ तैल मर्दन करनेसे लिङ्ग घोड़ेके लिङ्गके स्थूल होता है । इसी प्रकार धतूरके फलके बीज निकालकर उसी खाली फलमें धतूरेके ही रससे महीन पिसी असगन्ध की जड़ और सोंठ तथा भैंसीका मक्खन तीनों मिलाकर रखना चाहिये। बासी हो जानेपर लिङ्गमें पहिले गायके गोबरके उब टन कर इसका लेप करना चाहिये । इससे लिङ्ग घोड़ेके लिङ्गके सदृश स्थूल अतएव स्त्रियोंके लिये प्रेम पात्र हो जाता है ॥ ४५-४७ ॥ अश्वगन्धादितैलम् । अश्वगन्धावरीकुष्ठमांसीसिंही फलान्वितम् । चतुर्गुणेन दुग्धेन तिलतैलं विपाचयेत् । स्तनलिङ्गकर्णपालिवर्धनं श्रङ्क्षणादिदम् ॥ ४८ ॥ असगन्ध, शतावरी, कूठ, जटामांसी तथा छोटी कटेरीके फलों का कल्क और चतुर्गुण दूध मिलाकर सिद्ध तिलतैल मालिश करनेसे स्तन, लिङ्ग और कर्णपालियोंको बढाता है ॥ ४८ ॥ * [ वाजीकरणा स्तम्भनम् -" बीजं बृहत्करजस्य कृतमन्तः सुपारदम् । ना सुवेष्टितं न्यस्तं वदने बीजङ् मतम् ॥" - भल्लातकादिलेपः । भल्लातक बृहतीफलनलिनीदलसिन्धुजलशुकैः । माहिषनवनीतेन च करम्बितैः सप्तादिनमुषितैः॥४९ मूलेन हयगन्धाया माहिषमलमर्दितपूर्वमथ । लिप्तं भवति लघुकृत रासभलिङ्गं ध्रुवं पुंसाम् ॥५०॥ भिलावाँ, बड़ी कटेरीके फल, कमलिनीके पसे, सेंधानमक व जोंकका कल्क कर भैंसीके मक्खनमें मिला ७ दिन रखकर प्रथम लिङ्गमें भैंसे के गोबर से उबटन कर असगन्धकी जड़से इसका लेप हो जाता है ॥ ४९ ॥ ५० ॥ करना चाहिये । इससे मनुष्योंका लिङ्ग गधेके लिङ्गसे भी मोटा अन्ये योगाः । | नीलोत्पलसितपङ्कजकेशर मधुशर्करावलिप्तेन । सुरते सुचिरं रमते दृढलिङ्गो भवति नाभिविवरेण ॥५१॥ सिद्धं कुसुम्भतैलं भूमिलताचूर्णमिश्रितं कुरुते । चरणाभ्यङ्गेन रतेर्बीजस्तम्भाद् दृढं लिङ्गम् ॥ ५२ ॥ सप्ताहं छागभवसलिलस्थं करभवारुणीमूलम् । गाढोद्वर्तनविधिना लिङ्गस्तम्भं तथा दृढं कुरुते ॥५३॥ गोरेकोन्नतशृङ्गत्वग्भवचूर्णेन धूपितं वस्त्रम् । परिधाय भजति ललनां नैकाण्डोः भवति· हर्षार्तः ॥ ५४ ॥ नीलकमल, सफेद कमल, नागकेशर, शहद और शक्कर मिलाकर लेप करनेसे अधिक समयतक मैथुन करने की शक्ति प्राप्त होती और लिङ्ग दृढ होता है । यह लेप नाभिके ऊपर किया गया कुसुम्भका तैल पैर में मालिश करनेसे वीर्यस्तम्भ करना चाहिये। इसी प्रकार सूखे केंचुओंका कल्क छोड़कर सिद्ध तथा लिङ्ग दृढ होता हैं । इसी प्रकार बकरके मूत्रमें भावित इन्द्रायणकी जड़के चूर्णका लेप करनेसे लिङ्ग दृढ-तथा दिनतक वीर्य स्तब्ध होता है । इसी प्रकार गायके एक बड़े सींगकी त्वचा के चूर्ण से धूपित वस्त्र पहिन कर मैथुन करनेसे मैथुनेच्छा शान्त नहीं होती ॥ ५१-५४ ॥ ७ कुप्रयोगजषांढ्यचिकित्सा | समतिल गोक्षुर चूर्ण छागीक्षीरेण साधितं समधु । भुक्तं क्षपयति षाण्यं यज्जनितं कुप्रयोगेण ॥५५॥ - लताकरञ्जके बीज में शुद्ध पारद भरकर ऊपरसे सोनेके पत्रसे | मढवा देना चाहिये । इसको मुखमें रखकर मैथुन करनेसे वीर्यपात नहीं होता । । * वराहवसायोगः - " मेदसा क्षौद्रयुक्तेन वराहस्य प्रलेपितम् लिङ्गं स्निग्धं रतान्तेऽपि स्तब्धतां न प्रमुञ्चति ॥ " अपरं स्तम्भनम् - "आजं तूष्ट्रीक्षीरं गव्यघृतं चरणयुगललेपेन । शूकरकी चर्बी को शहदके साथ मिलाकर लिङ्गमें लेप करनेसे स्तम्भयति पुरुषबीजं योगोऽयं यामिनीं सकलाम् " ॥ मैथुन के बाद भी लिङ्ग स्तब्धता नहीं मिटती । बकरी का दूध, ऊँटिनीका दूध और गायका घृत तीनों एकमें मिला पैरोंमें लेप कर मैथुन कर समग्र रात वीर्यपात नहीं होता । यह तीनों प्रयोग कुछ पुस्तकों में हैं, कुछमें नहीं ।

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