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चक्रदत्तः।
(स्वेदा
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न स्वेदयेदतिस्थूलरूक्षदुर्बलमूर्छितान् ॥ ४॥ अतिस्वेदन हो जानेपर फफोले पित्तरक्तका प्रकोप, नशा, स्तम्भनीयक्षतक्षीणविषमद्यविकारिणः । मूर्छा, चक्कर, दाह, ग्लानि तथा सन्धियोंकी पीड़ा और प्यास तिमिरोदरवीसर्पकुष्ठशोषाढयरोगिणः॥५॥
उत्पन्न होती है । इसमें विद्वानको शीतल क्रिया करनी पीतदुग्धदधिस्नेहमधून्कृतविरेचनान् ।
चाहिये ॥११॥ भ्रष्टदग्धगुदग्लानिक्रोधशोकभयार्दितान् ॥६॥
स्वेदप्रयोगविधिः। क्षुत्तृष्णाकामलापाण्डुमेहिनः पित्तपीडितान् ।। सर्वान्स्वेदान्निवाते तु जीर्णान्ने चावचारयेत । गर्भिणी पुष्पितां सूतां मृदुर्वात्ययिके गदे ।। ७ ।। येषां नस्य विधातव्यं बस्तिश्चापि हि देहिनाम् ॥१२ अण्डकोश हृदय और नेत्रोंका स्वेदन करना ही न चाहिये । शोधनीयास्तु ये केचित्पूर्व स्वेद्यास्तु ते मताः । अथवा अधिक आवश्यकता होनेपर मृदु स्वेदन करना चाहिये । पश्चात्स्वेद्या हृते शल्ये मूढगर्भानुपद्रवाः ॥ १३॥ पक्षणसन्धिमें मध्य तथा शेष अवयमि यथेष्ट स्वेदन करना | सम्यक्प्रजाता काले च पश्चात्स्वेद्या विजानता। चाहिये । अतिस्थूल, रूक्ष, दुर्बल, मूर्छित, स्तम्भनीय, क्षत स्वेद्याः पश्चाच पूर्व च भगन्दर्यशेसस्तथा ॥ १४ ॥ क्षीण, विष तथा मद्यविकारवाले, तिमिर, उदर, विसर्प, कुष्ठ, शोष, ऊरुस्तम्भवाले, तथा जिन्होंने दूध, दही, स्नेह या शहद
समस्त स्वेद निवातस्थानमें तथा अन्न पच जानेपर करना पिया है, अथवा जिन्होंने विरेचन लिया है, तथा जिनकी गुदा
चाहिये । तथा जिन्हें नस्य या बस्ति देना है, अथवा जिनका भ्रष्ट या दग्ध है, तथा ग्लानि, क्रोध, शोक या भयसे तथा शोधन करना है, उनका पहिले ही स्वेदन करना चाहिये भूख, प्यास, कामला, पाण्डु, प्रमेह और पित्तसे पीड़ित तथा।
| तथा मुढगाके शल्य निकल जाने और कोई उपद्रव न होनेगर्भिणी, रजस्वला और प्रसूता स्त्रियां स्वेदनके अयोग्य है। पर बादमें स्वेदन करना चाहिये तथा जिसके यथोक्त समयपर अधिक आवश्यकता होनेपर इनका मृदु स्वेदन करना
| सुखपूर्वक बालक उत्पन्न हुआ है, उसका भी बादमें स्वेदन चाहिये ॥४-७॥
करना चाहिये । भगन्दर और अर्शवालाको शस्त्रक्रियाके पहिले
तथा अन्त भी स्वेदन करना चाहिये ॥१२-१४ ॥ __ अनाग्नेयः स्वेदः। स्वेदो हितस्त्वनानेयो वाते मेदःकफावृते ।
स्वेदाः। निर्वातं गृहमायासो गुरुप्रावरणं भयम् ॥ ८ ॥ तप्तैः सैकतपाणिकांस्यवसनैः स्वेदोऽथवाङ्गारकैउपनाहाहवक्रोधभूरिपानक्षुधातपाः ।
लेंपाद्वातहरैः सहाम्ललवणस्नेहैः सुखोष्णैर्भवेत् । स्वेदयन्ति दशैतानि नरमाग्निगुणाहते ॥९॥ एवं तप्तपयोऽम्बुवातशमनक्काथादिसेकादिभिमेद तथा कफसे आधुत वायुमें अनानेय स्वेद हितकर है।
स्तप्ते तोयनिषेचनोद्भवबृहद्वाष्पैः शिलादो क्रमात् १५ वातरहित स्थान, परिश्रम, भारी रजाई, भय, पुल्टिस, युद्ध,
तापोपनाहद्रवबाष्पपूर्वाः । क्रोध, अधिक मद्यपान, भूख और धूप यह दश “ अनानेय स्वेदास्ततोऽन्त्यप्रथमौ कफे स्तः । स्वेद" अर्थात् आग्निके विना ही स्वेदन करते हैं ॥ ८॥९॥ वायो द्वितीयः पवने कफे च
पित्तोपसृष्टे विहितस्तृतीयः॥१६॥ सम्यकस्विन्नलक्षणम् । शीतशूलव्युपरमे स्तम्भगौरवनिप्रहे ।
गरम की हुई बालूकी पोटली, हाथ, कांस्यपात्र, कपड़ा, संजाते मार्दवे स्वेदे स्वेदनाद्विरतिर्मता ॥१०॥ अंगार अथवा वातहर पदार्थ, काजी, नमक, स्नेह मिलाकर
शीत और शूलके शान्त हो जाने, जकडाहट और भारी-गरम किया लेप अथवा गरम जल, दूध अथवा वातनाशक पन नष्ट हो जाने और शरीरके मृदु हो जानेपर स्वेदन बन्द क्वाथादिका सेक अथवा पत्थरको गरम कर ऊपरसे वातनाशक कर देना चाहिये ॥१०॥
क्वाथ अथवा जल छोड़कर उठी हुई भाप इनमेंसे यथायोग्य
स्वेदन करना चाहिये । सामान्यतः ताप, उपनाह, द्रव और अतिस्विनलक्षणं चिकित्सा च ।
बाष्प भेदसे स्वेद ४ प्रकारका है। उनमें ताप और बाष्प कफमें, स्फोटोत्पत्तिः पित्तरक्तप्रकोपो
उपनाह वायुमें तथा पित्तयुक्त कफ वा वायुमें द्रव स्वेद मदो मूर्छा भ्रमदाही कृमश्च । हितकर है ॥ १५ ॥१६॥ अतिस्वेदे सन्धिपीडा तृषा च
इति स्वेदाधिकारः समाप्तः। क्रियाः शीतास्तत्र कुर्याद्विधिज्ञः ॥ ११॥ ।