________________
न
"wwwwww
Po
चक्रदत्तः।
. [वाजीकरणा- ~चूर्णमिदं पयसा निशि पेयं
हन्त्यष्टादश कुष्ठानि तथाष्टावुदराणि च । यस्य गृहे प्रमदाशतमस्ति ॥ ९॥ | भगन्दरं मूत्रकृच्छ्रे गृध्रसी सहलीमकम् ॥ १९ ॥ गोखुरू, तालमखाना, शतावरी, कौंचके बीज गोरन व
क्षयं चैव महाश्वासान्यञ्च कासान्सुदारुणान् कंघीके चूर्णको दूधके साथ रातमें उन्हें पीना चाहिये जिनके
अशीतिं वातजान् रोगांश्चत्वारिंच्च पैत्तिकान्॥२०॥ घरमें १०० स्त्रियां हैं ॥ ९ ॥
विंशतिं श्लैष्मिकांश्चैव संसृष्टान्सान्निपातिकान् । माषपायसः।
सर्वानशेगदान्हन्ति वृक्षमिन्द्राशनिर्यथा ॥२१॥ घृतभृष्टो दुग्धमाषपायसो वृष्य उत्तमः।
स काञ्चनाभो मृगराजविक्रमघीमें भूनकर उड़दकी धके साथ बनायी गयी खीर उत्तम स्तुरङ्गमं चाप्यनुयाति वेगतः। वाजीकरण है।
स्त्रीणां शतं गच्छति सोऽतिरेकं रसाला। .
प्रकृष्ट दृष्टिश्च यथा विहङ्गः ॥२२॥ दध्नः सारं शरच्चन्द्रसन्निभं दोषवर्जितम् ॥१०॥
पुत्रान्सजनयेद्वीरान्नरसिंहानिभांस्तथा । शर्कराक्षौद्रमरिचैस्तुगाक्षीर्या च बुद्धिमान् ।
नारसिंहमिदं चूर्ण सर्वरोगहरं नृणाम् ॥ २३ ॥ युक्त्या युक्तं ससूक्ष्भलं नवे कुम्भे शुचौ पटैः।।११।।
वाराहीकन्दसंज्ञस्तु चर्मकारालुको मतः । मार्जिते प्रक्षिपेच्छीतं घृताढथं षष्टिकोदनम् ।।
पश्चिमे घृष्टिशब्दाख्यो वराहलोमवानिव ॥ २४ ॥ अद्यात्तदुपरिष्टाच्च रसाला मात्रया पिबेत् ।
शतावरीका चूर्ण ६४ तोला, गोखरू ६४ तोला, वाराही. वर्णस्वरबलोपेतः पुमांस्तेन वृषायते ॥ १२ ॥ कन्दचूर्ण ८० तोला, गुर्च १०० तोला, भिलावां १२८
उत्तम दहीके सार (ऊपरकी मलाई ) में शक्कर, शहद, तोला, सोंठ, मिर्च, पीपल प्रत्येक ३२ तोला, बिदारीकन्दकाली मिर्च, वंशलोचन और छोटी इलायचीका चूर्ण मिलाकर
का चूर्ण ६४ तोला सबका चूर्ण एकमें मिलाकर मिश्री २८० नये कपड़ेसे साफ किये घड़ेमें रखना चाहिये। ठंडा भात घी| ताला,
तोला, शहद १४० तोला, घी ७० तोला मिला एक चिकने मिलाकर खाना चाहिये । ऊपरसे यह "रसाला" पीनी चाहिये । पृतभार
घृतभावित घड़ेमें रखना चाहिये । इससे २ तोलेकी मात्रा इससे मनुष्य वर्ण, स्वर और बलसे युक्त होकर वेगवान्
(वर्तमानसमयमें ६ माशेसे १ तोला तक) प्रतिदिन खाना होता है॥१०-१२॥
|चाहिये। तथा यथारुचि भोजन करना चाहिये । इसके १
मासके सेवनसे वृद्धावस्था तथा रोग दूर हो जाते हैं । झुर्रियां, मत्स्यमांसयोगः।
पलित, इन्द्रलप्त, प्रमेह, पाण्डुरोग, पीनस अठारह प्रकारके आर्द्राणि मत्स्यमांसानि शफरीर्वा सुभर्जिताः। कुष्ठ, ८ प्रकारके उदररोग, भगन्दर, मूत्रकृच्छ्र, गृध्रसी, हलीतप्ते सपिषि यः खादेत्स गच्छेत्स्त्रीषु न क्षयम्॥१३ मक, क्षय, महाश्वास, पांचों कोस, अस्सी प्रकारके वातरोग,४० गीले मछलीके मांस अथवा छोटी मछलियाँ घीमें भूनकर प्रकारके पित्तरोग, २० प्रकारके कफरोग, द्वंद्वज तथा सानिजो खाता है, वह स्त्रीगमनसे क्षीण नहीं होता ॥ १३॥ पातिक रोग तथा समस्त अर्शोरोग इसके सेवनसे इस प्रकार नष्ट नारसिंहचूर्णम् ।
हो जाते हैं जैसे इन्द्रवज्रसे वृक्ष । इसका सेवन करनेवाला सोनेके शतावरीरजःप्रस्थं प्रस्थं गोक्षरकस्य च।
| समान कान्तिवाला, सिंहके समान पराक्रमी, घोड़ेके समान
वेगवाला तथा सैकड़ों स्त्रियोंके साथ रमण करनेकी शक्तिवाला वाराह्या विंशतिपलं गुडूच्याः पञ्चविंशतिः।।
तथा पक्षियोंके सदृश दृष्टियुक्त होता है । इसके सेवनसे नसिंहके भल्लातकानांद्वात्रिंशञ्चित्रकस्य दशैव तु ॥ १४॥ | समान वीर पत्र उत्पन्न करनेकी शक्ति उत्पन्न होती है। यह तिलानां शोधितानां च प्रस्थं दद्यात्सुचूर्णितम् । | समस्त रोगोंको नष्ट करनेवाला “नारसिंह" चूर्ण है। "वाराहीत्र्यूषणस्य पलान्यष्टी शर्करायाश्च सप्ततिः ॥ १५॥ कन्द" नाम चर्मकारालूका है, पश्चिममें इसे “वृष्टि " कहते हैं, माक्षिकं शर्करार्धेन माक्षिकाधेन वै घृतम् । इसके कन्दके ऊपर शूकरकेसे लोम होते हैं ॥ १४-२४ ॥ शतावरीसमं देयं विदारीकन्द रजः ॥१६॥
गोधूमायं घृतम् । एतदेकीकृतं चूर्ण स्निग्धे भाण्डे निधापयेत् ।। गोधूमाच्च पलशतं निष्काथ्य सलिलाढके । पलार्धमुपयुजीत यथेष्ट चापि भोजनम् ॥ १७ ॥ । पादावशेषे पूते च द्रव्याणीमानि दापयेत् ।।२५ ।। मासैकमुपयोगेन जरां हन्ति रुजामपि ।
गोधूमं मुखातफलं माषद्राक्षापरूषकम् । वलीपलितखालित्यमेहपाण्ड्वाद्यपीनसान् ॥ १८॥ काकोली क्षीरकाकोली जीवन्ती सशतावरी ॥२६॥