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धिकारः]
भाषाटीकोपेतः।
(३१५)
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३ सेर १६ तोला भिलावाँ लेकर प्रथम ईंटके चूरेके साथ |
विदारीचूर्णम् । खूब रगड़ना चाहिये । फिर गरम जलसे धोकर साफ कर लेना चाहिये । फिर एक एक भल्लातकके दो दो टुकड़े कर चतुर्गुण
| चूर्ण विदार्याः सुकृतं स्वरसेनैव भावितम् । जल ( १२ सेर ६४ तो. द्रवद्वैगुण्यात् २५ सेर ९ छ० ३
सर्पिः क्षौद्रयुतं लीदवा शतं गच्छेद्वराङ्गनाः॥३॥ तो० ) में पकाना चाहिये । चतुर्थाश शेष रहनेपर उतार छानकर इसी प्रकार विदारीकन्दके चूर्णको विदारीकन्दके ही स्वरक्वाथके बराबर दूध तथा घी १ सेर ९छ. ३ तो मिलाकर ससे भावना देकर घी व शहद मिलाकर चाटनसे सैकड़ों पकाना चाहिये । अवलेह सिद्ध हो जानेपर उतारकर ७ दिन स्त्रियोंके साथ मैथुन करनेकी सामर्थ्य प्राप्त होती है ॥३॥ तक उसे वैसे ही रखे रहना चाहिये। ७ दिनके अनंतर आग्निबलके अनुसार इसकी मात्रा सेवन करनी चाहिये । (इसकी
आमलकचूर्णम् । मात्रा ६ माशेसे २ तोलेतक है) यह समग्र अर्शरोग नष्ट
एवमामलकं चूर्ण स्वरसेनैव भावितम् ।। करता, बाल घने धुंधुराले तथा काले बनाता तथा गरुडके समान |
शर्करामधुसर्पिभिर्युक्तं लीढ्वा पयः पिबेत् । दृष्टि तथा सुकुमारता बढाता, घोड़ोंके समान वेगवान्, एतेनाशीतिवर्षोऽपि युवेव परिहृष्यते ॥४॥ हाथियों के समान बलवान् , मयूरके सदृश स्वर, आमि दीप्त | इसी प्रकार आंवलेके चूर्णमें आंवलेके स्वरसकी ही भावना करता तथा स्त्रियोंकी प्रियता और सन्तान तथा २०० वर्षकी दे शक्कर, घी और शहद मिलाकर चाटना. चाहिये, ऊपरसे नीरोग आयु प्रदान करता है। इसमें भोजन मैथुन तथा मार्ग दूध पीना चाहिये । इससे ८० वर्षका बूढा भी जवानके समान चलने आदिका कोई परहेज नहीं है । यह समस्त रोगोंके मैथुनशक्तिसम्पन्न होता है ॥४॥ लिये काल तथा समस्त रसायनोंका राजा है। इसमें भल्लातकशुद्धि ईटके चूरेमें रगड़कर की जाती है और दूध घीसे चौगुना|
विदारीकल्कः। छोड़ा जाता है । और घी १ प्रस्थ (द्रवद्वैगुण्यात् २ प्रस्थ-१|
विदारीकन्दकल्कं तु घृतेन पयसा नरः। सेर ९ छटांक ३ तोला ) छोड़ा जाता है । १९४-१९९॥ उदुम्बरसमं खादन्वृद्धोऽपि तरुणायते ॥५॥
विदारीकन्दका कल्क १ तोलेकी मात्रासे घी व दूधके साथ इति रसायनाधिकारः समाप्तः ।
खानेसे वृद्ध भी जवानके सदृश होता है ॥५॥
स्वयं गुप्तादिचूर्णम् ।। स्वयंगुप्तागोक्षुरयोर्बीजचूर्ण सर्शकरम् । धारोष्णेन नरः पीत्वा पयसा न क्षयं ब्रजेत् ॥६॥
कौंचके बीज तथा गोखुरूके बीजोंका चूर्ण शक्कर मिला पिप्पलीलवणोपेतौ बस्ताण्डौ क्षीरसर्पिषा। धारोष्ण दूधके साथ पीनेसे मनुष्य क्षीण नहीं होता है॥६॥ साधिती भक्षयेद्यस्तु स गच्छेत्प्रमदाशतम् ॥१॥
उच्चटाचूर्णम् । बस्ताण्डसिद्धे पयसि साधितानसकृत्तिलान् ।। यः खादेत्स नरो गच्छेत्स्त्रीणां शतमपूर्ववत् ॥२॥
उच्चटाचूर्णमप्येवं क्षीरेणोत्तममुच्यते ।
शतावर्युच्चटाचूर्ण पेयमेवं सुखार्थिना ॥७॥ बकरेके अण्डकोषको दूधसे निकाले गये घीमें तलकर इसी प्रकार केवल उच्चटा (श्वेतगुजामूल) का चूर्ण अथवा छोटी पीपल व नमक मिला सेवन करनेसे मनुष्य १०० स्त्रियोंके शतावरी व उच्चटा दोनोंके चूर्णको दूधके साथ पीनेसे कामशक्ति साथ मैथुन कर सकता है । इसी बकरके अण्डकोषसे सिद्ध बढती है ॥७॥ दूधसे भावित तिल खानेसे १०० स्त्रियोंके साथ मैथुन करनेकी | शक्ति होती है ॥१॥२॥ .
मधुकचूर्णम् । कर्ष मधुकचूर्णस्य घृतक्षौद्रसमन्वितम् ।
। पयोऽनुपानं यो लियानित्यवेगः स ना भवेत् ।।८।। १ भल्लातकका प्रयोग सावधानीसे करना चाहिये । बनाते
बनाता १ तोला मौरेठीके चूर्णको घी व शहदमें मिला चाटकर
, समय इसके तैलके छीटे पड़ जाने या पकाते समय इसकी| भाप लग जानेसे शोथ हो जाता है, तथा-खानेसे भी |
ऊपरसे दूध पीनेसे मनुष्य नित्य वेगवान होता है ॥८॥ किसी किसीको शोथ हो जाता है। ऐसी अवस्थामें तिल और
गोक्षुरादिचूर्णम् । गरीका उबटन तथा खाना लाभदायक होता है। तथा
गोक्षुरकः क्षुरकः शतमूली प्रत्तेके क्वाथसे स्नान करना चाहिये ॥ .
वानरिनागबलातिबला च ।
अथ वाजीकरणाधिकारः।