Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 340
________________ धिकारः] . भाषाटीकोपेतः। इसका प्रयोग करनेवाला दूधके साथ ही भोजन करे । इसका ताः शुष्का नवकुम्भे जातीपुष्पाधिवासिते स्थाप्याः। प्रयोग . सप्ताह अथवा ३ सप्ताह अथवा १ सप्ताहका है। तथा तासामेका काले भक्ष्या पेयापि वा सततम्॥ १७८ ॥ इसकी ४ तोला, २ तोला या १ तोला ( वर्तमानसमयानुकूल क्षीररसदाडिमरसा:सुरासवं मधु च शिशिरतोयानि । मात्रा ४ रत्तीसे २ माशेतक) क्रमशः उत्तम, मध्यम और हीन " आलोडनानि तासामनुपाने वा प्रशस्यन्ते ॥ १७९ ॥ मात्रा है ॥ १६५॥१६६ ॥ जीर्णे लध्वन्नपयो जाङ्गलनि!हयूषभोजी स्यात् ।। पथ्यापथ्यम् । सप्ताहं यावदतः परं भवेत्सोऽपि सामान्यः ॥१८॥ शिलाजतुप्रयोगेषु विदाहीनि गुरूणि च । । भुक्त्वापि भक्षितेयं यदृच्छया नावहेद्भयं किञ्चित् । वर्जयेत्सर्वकालं च कुलत्थान्परिवर्जयेत् ॥ १६७॥ निरुपद्रवा प्रयुक्ता सुकुमारैः कामिभिश्चैव ॥ १८१ ॥ . पयांसि शुक्तानि रसाः सयूषा सूर्यकी किरणोंसे तपे हुए समयमें उत्तम लौह शिलाजतु ले स्तोयं समूत्रं विविधाः कषायाः। त्रिफलाका रस मिलाकर तीन दिनतक भावना देनी चाहिये । . आलोडनार्थे गिरिजस्य शस्ता फिर क्रमशः दशमूल, गुर्च, खरेटी, परवल, मौरेठीके रस तथा स्ते ते प्रयोज्याः प्रसमीक्ष्य कार्यम् ॥१६८ ॥ गोमूत्र प्रत्येकमें ३ तीन भावना देनी चाहिये । सूख जानेपर चरकोक्तशिलाजतुनो विधानं सोपस्करं ह्येतत् । एक दिन दूधकी भावना देनी चाहिये । फिर ७ दिनतक नीचे | लिखी ओषधियों में जो मिल सकें, उनकी भावना देनी चाहिये । शिलाजतुके प्रयोगोंमें जलन करनेवाले तथा गुरु अन्न और भावनाकी ओषधियाँ-काकोली, क्षीरकाकोली, मेदा, महामेदा, कुलथीका सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये । तथा शिलाजतुके विदारी, क्षीरविदारी, शतावरी, मुनक्का, ऋद्धि, वृद्धि, ऋषभक, अनुपानमें दूध, सिरका, मांसरस, यूष, जल, गोमूत्र तथा अनेक ब्राह्मी, मुण्डी, सफेद जीरा, स्याह जीरा, शालपर्णी,. पृष्ठपर्णी, (रोगीकी प्रकृतिके अनुकूल ) प्रकारके क्वाथोंका प्रयोग करना रासन, पोहकरमूल, चीतकी जड़, दन्ती, गजपीपल, इन्द्रयव, चाहिये । यह चरकोक्त शिलाजतुका विधान आवश्यक अंग |चव्य, नागरमोथा, कुटकी, काकड़ाशिंगी व पाठा प्रत्येक द्रव्य बढाकर लिखा गया है ॥ १६७ ॥ १६८॥ | एक पल लेकर एक द्रोण जलमें मिलाकर पकाना चाहिये। चतुर्थीश शेष रहनेपर उतार छान शुद्ध शिलाजतु १६ पल शिवा गुटिका। (६४ तोला) छोड़ ७ दिनतक भावना देनी चाहिये । यद्यपि काले तुरवितापाढये कृष्णायसनं शिलाजतु प्रवरम् १६९ | यहाँपर एक बार कषाय कर छोड़ना लिखा है। पर बासी कषाय त्रिफलारससंयुक्तं व्यहश्च शुष्कं पुनः शुष्कम् । खट्टा होकर खराब हो जाता है, अतः प्रत्येक दिन ताजा कषाय दशमूलस्य गुडूच्या रसे बलायास्तथा पटोलस्य १७०॥ ही छोड़ना चाहिये । अतः प्रत्येक द्रव्य प्रतिदिन १ पल न मधुकरसैर्गोमूत्रे त्र्यहं त्र्यहं भावयेत्क्रमशः। लेकर १ पलका सप्तमांश अर्थात् वर्तमान तौलसे ६ माशे ७ एकाहं क्षीरेण तु तच्च पुनभावयेच्छुष्कम् । रत्ती और जल ३ सेर १०॥ छ० छोड़ पका चतुर्थांश शेष रख सप्ताहं भाव्यं स्यात्काथेनैषां यथालाभम् ।। १७१ ॥ कपड़ेसे छानकर मिलाना चाहिये । इसप्रकार भावना समाप्त हो जानेपर नीचे लिखी ओषधियाँ मिलानी चाहिये । सोंठ, मिर्च, काकोल्यौ द्वे मेदे विदारियुग्मं शतावरी द्राक्षा। छोटी पीपल, आंवला प्रत्येकका चूर्ण ८ तोला, विदारीकन्द ऋद्धियगर्षभवीरामुण्डितिकाजीरकेंऽशुमत्यो च ॥१७२ तोला, तालीशपत्र १६ तोला, मिश्री ६४ तोला, घी १६ रास्नापुष्कराचत्रकदन्तीभकणाकलिङ्गचव्याब्दाः। तोला, शहद ३२ तोला, तिलतैल ८ तोला, वंशलोचन, दालकटुकाशृङ्गीपाठा एतानि पलांशिकानि कार्याणि १७३ चीनी, तेजपात, छोटी इलायची, नागकेशर प्रत्येक २ तोलका अब्दोणे साधितानां रसेन पादांशिकेन भाव्यानि। चूर्ण मिला घोटकर १ तोलेकी मात्रा ( वर्तमानकालके लिये गिरिजस्यैवं भावितशुद्धस्य पलानि दश षट् च।।१७४॥ माशेकी मात्रा) से गुटिका बना सुखाकर चमेलीके फूलोंसे द्विपलं च विश्वधाच्योर्मागधिकायाश्च मरिचानाम् । अधिवासित नवीन घड़ेमें रखना चाहिये । इसकी एक मात्रा खाना या द्रवद्रव्य मिलाकर पीना चाहिये । इसके अनुपान या चर्ण पलं विदार्यास्तालीसपलानि चत्वारि ॥ १७५ ॥ पालोडनके लिये दध, मांसरस, अनारका रस, शराब, शहद या षोडश सितापलानि चत्वारि घृतस्य माक्षिकस्याष्टौ । ठण्ढा जल काममें लाना चाहिये । औषधका परिपाक हो जानेतिलतैलस्य द्विपलं चूर्णार्धपलानि पञ्चानाम् ॥ १७६ ॥ पर हल्का अन्न, दूध, जांगल प्राणियोंके मांसरस या यूषके साथ त्वक्षरिपत्रत्वङ्नागैलानां च मिश्रयित्वा तु। . खाना चाहिये । सात दिनतक यह नियम रखना चाहिये । गिरिजस्य षोडशपलैर्गुडिकाःकार्यास्ततोऽक्षसमाः १७७ । इसके अनन्तर सामान्य भोजन करना चाहिये । भोजन करनेके

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