Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

View full book text
Previous | Next

Page 335
________________ (३०८) चक्रदत्तः। [रसायना - - र - - -- - इदमाप्यायकमिदमति दशकृष्णलपरिमाणं शक्तिवयोभेदमाकलय्य पुनः । पित्तनुदिदमेव कान्तिबलजननम् । इदमधिकं तदधिकतरमियदेव न मातृमोदकवत्१० स्तन्नाति तृक्षुधौ तत् समममृगामलपात्रे लौहे लोहेन मर्दयेद् दृढं भूयः । परमधिकमात्रया युक्तम् ॥ ९२ ॥ दत्त्वा मध्वनुरूपं तदनु घृतं योजयेदधिकम् १०१॥ अथवा आगे कही हुई विधिसे संस्कृत (सिद्ध ) कृष्णाभ्रक बन्धं गृह्णाति यथा मध्वपृथक्त्वेन पङ्कमविशिषेत्। भस्म लोहसे चतुर्थाश आधी समान, द्विगुण, त्रिगुण, चतुर्गुण इदमिह दृष्टोपकरणमेतद् दृष्टं तु मन्त्रेण ।। १०२॥ अथवा पञ्चगुण ले एकमें मिलाकर मिलित लोहाभ्रसे पूर्वोक्त स्वाहान्तेन विमर्दो भवति फडन्तेन लोहबलरक्षा । विधिसे त्रिफलादि क्वाथ और दूध, घी मिलाकर पूर्वकी भांति ही। सनमस्कारेण बलिर्भक्षणमयसो ह्रीमन्तेन ॥१०३।। पकाना चाहिये । यह रसायन शरीर बढाता, पित्त शान्त करता, “ओं अमृतोद्भवाय स्वाहा । कान्ति व बल उत्पन्न करता है, पर अधिक मात्रामें सेवन करनेसे | ओं अमृते ह्रीम् फट् , ओं नमश्चण्डवनपाणये । भूख प्यास कम कर देता है ॥ ९०-९२॥ महायक्षसेनाधिपतये सुरगुरुविद्यामहाबलाय स्वाहा __ अभ्रकभस्माविधिः। ओं अमृते हीम" ॥१०४॥ कृष्णाभ्रकमेकवपुर्वज्राख्यं चैकपत्रकं कृत्वा । | अनेक प्रकारकी पीड़ाकी शान्ति, पुष्टि और कांतिके लिये काष्ठमयोदूखलके चूर्ण मुसलेन कुर्वीत ॥ ९३॥ शंकरजीका पूजन कर उत्तम मुहूर्तमें यह लोहामृत रसायन भूयो दृषदि च पिष्ट वासः सूक्ष्मावकाशतलगलितम। सामान्यतः १० रत्तीकी मात्रा ( मात्राका विशेष निश्चय करना मण्डूकपर्णिकायाः प्रचुररसे स्थापयेत्रिदिनम ९४॥चाहिये, क्योंकि सबके लिये एक मात्रा नहीं हो सकती, तथा यह उद्धृत्य तद्रसादथ पिंप्याद्वैमन्तधान्यभक्तस्य। मात्रा बहुत बड़ी होनेके कारण आजकलके लिये उपयोगी नहीं) अक्षोदात्यन्ताम्लस्वच्छजलेन प्रयत्नेन ॥९५॥ तथा या अवस्थाके अनुसार कम या आधिक भी निश्चित करना मण्डूकपर्णिकायाः पूर्व स्वरसेनालोडनं कुर्यात् । । चाहिये । माताके दिये लड्डुओंके समान सबके लिये बराबर ही मात्रा नहीं हो सकती। फिर उस मात्राको चिकने स्थालीपा पुटनं चाद्यैरपि भृङ्गराजाद्यैः ॥ ९६ ॥ साफ लोहके पात्रमें लौहके ही दण्डसे खूब घोटना चाहिये । तालादिपत्रमध्ये कृत्वा पिण्डं निधाय भलाग्नौ । फिर उसी मात्राके समान मधु तथा घी उससे अधिक छोड़कर तावद्दहेन यावन्नीलोऽग्निदृश्यते सुचिरम् ।। ९७ ॥ फिर घोटना चाहिये, जिसमें घी, शहद एकमें मिल जावे । निर्वापयेच दुग्धे दुग्धं प्रक्षाल्य वारिणा तदनु। इतने तो दृष्ट प्रयोग हैं । अब अदृष्ट मन्त्र शक्तिका वर्णन करते हैं। पिष्ट्वा घृष्ट्वा वस्त्रे चूर्ण निश्चन्द्रिकं कुर्यात् ॥९८॥ “ओं अमृतोद्भवाय स्वाहा " इस मन्त्रसे घोटना चाहिये। एक वर्णवाले काले वज्राभ्रकका लकड़ीके उलूखलमें मूसरसे || अर्थात् घोटते समय इसका जप करना चाहिये " ओं अमृते चूर्ण करना चाहिये । फिर सिलपर पीसकर महीन कपड़ेसे छान ह्रीम् फट् (किसी २ में “ओं अमृते हुम् फट् " यह पाठ है) लेना चाहिये । फिर मण्डूकपर्णीके बहुत रसमें ३ दिनतक रक्खे. इस मन्त्रसे लोहकी बलरक्षा करनी चाहिये । तथा “ ओं फिर उससे निकालकर हैमंतिक (हेमन्तऋतुमें उत्पन्न होनेवाले)। नमश्चण्डवज्रपाणये महायक्षसेनाधिपतये सुरगुरुविद्यामहाबलाय चावलोंके भातसे बनायी काजीके अत्यन्त स्वच्छ जलके साथ 12 स्वाहा " इस मन्त्रसे बलि तथा “ओं अभृते ह्रीम्" (किसी घोटे। फिर मण्डूकपर्णीके स्वरसमें मिला मथकर स्थालीपाक और | किसीमें “ओं अमृते हुम्") यह पाठ है। इस मन्त्रको पढकर पुटपाक करे तथा पूर्व लौह रसायनमें कहे भंगराज आहिलौह चाटना चाहिये ॥ ९९-१०४ . रससे भी स्थालीपाक और पुटपाक करे। फिरताड़ आदिके पत्तों में अनुपानपथ्यादिकम् । रखकर भट्टीमें रख धौंकनीसे धौंकते हुए उस समयलक आंच दे, जग्ध्वा तदमृतसारं नीरं वा क्षीरमेव वानुपिबेत् । जबतक कि अग्नि नीलवर्ण न प्रतीत होने लगे। फिर अग्निसे निकाले और दूधमें बुझावे, फिर दूधको पानीसे धोकर साफ कान्तक्रामकममलं संचळ रसं पिबेन्न तु तत्१०५॥ करना चाहिये, फिर इस सिद्ध अभ्रकको महीन पीस कपड़ेसे आचम्य च ताम्बूलं लाभे घनसारसहितमुपयोज्यम्। छानकर निश्चन्द्र कर ले ॥ ९३-९८॥ नात्युपविष्टो नाप्यतिभाषी नातिस्थितस्तिष्ठेत् १०६॥ लोहसेवनविधिः। अत्यन्तवातशीतातपयानस्नानवेगरोधादीन् । जह्याच दिवानिद्रासहितं चाकालभुक्तं च॥१०७॥ नानाविधरुक्शान्त्यै पुष्टथै कान्त्यै शिवं समभ्यर्च्य। सुविशुद्धेऽहनि पुण्ये तदमृतमादय लौहाख्यम्९९॥ (१, २, ३) इमिति पाठान्तरम् ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374