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अर्थात् इमलीकी पत्ती के रससे स्वेदन करनेसे अथवा धियाँ २४ शराव जलमें पकाकर ३ शराव शेष रखना चाहिये । उसी क्वाथसे पाक करना चाहिये ॥ ६६ ॥ ६७ ॥
पाकवः ।
हस्तप्रमाणवदनं श्वभ्रं हस्तैकखातसममध्यम् । कृत्वा कटाहसदृशं तत्र करीषं तुषं च काष्ठं च ॥६८ अन्तर्घनतरमर्द्ध शुषिरं परिपूर्य दहनमायोज्य । पश्चादयसश्चूर्ण श्लक्ष्णं पङ्कोपमं कुर्यात् ॥ ६९ ॥ त्रिफलाम्बुभृङ्गकेशर शतावरीकन्दमाण सहजरसैः। भल्लातककरिकर्णच्छदमूलपुनर्नवास्वरसैः ॥ ७० ॥ क्षिप्त्वाथ लोहपात्रे मार्दे वा लोहमार्दपात्राभ्याम् । तुल्याभ्यां पृष्ठेनाच्छाद्यान्ते रन्ध्रमालिप्य ॥ ७१ ॥ तत्पुटपात्रं तत्र श्वभ्रज्वलने निधाय भूयोऽपि । काष्ठकरीषतुषैस्तत्सञ्छाद्याहर्निशं दहेत्प्राज्ञः ॥ ७२ ॥ एवं नवभिर्भेषजराजैस्तु पचैत्सदेव पुटपाकम् । प्रत्येकमेकमेभिर्मिलितैर्वा त्रिचतुरान्वारान् ॥ ७३॥ प्रतिपुटनं तत्पिप्यात्स्थालीपाकं विधाय तथैव । तावद्दिनं च पिष्याद्विगलद्रजसा तु युज्यते यत्र ७४ तदयश्चूर्ण पिष्टं घृष्टं घनसूक्ष्मवाससि लक्ष्णम् । यदि रजसा सदृशं स्यात्केतक्यास्तर्हि तद्भद्रम् ॥७५ पुटने स्थालीपाकेऽधिकृतपुरुषे स्वभावरुगधिगमात् । कथितमपि यमौषधमुचितमुपादेयमन्यदपि ॥ ७६ ॥
चक्रदत्तः ।
त्रिफला और गोमूत्र में स्वेदन करनेसे भी लोह शुद्ध हो जाता है । विशेष उन्हीं ग्रन्थों में देखिये ) इसके अनंतर कन्दगुडूची, त्रिफला, विष्णुकांता, अस्थिसंहार ( हत्थाजोड़ी ) हस्तिकर्णपलाशके पत्ते और जड़ तथा शतावरी व काला भांगरा, शालिञ्चशाककी जड़, काशकी जड़, पुनर्नवा और भांगरा के कल्क से उस लोहपर लेप करना चाहिये और फिर उसे सुखा लेना चाहिये । फिर अधिक समयतक जलमें मावित कर साफ किये शालके कोपलोंको भट्टीमें बिछाकर धौंकनी से धौंकना चाहिये । तथा अग्निकी लपट अधिक करनेके लिये मिट्टी, नमक आदि मिली कूचीसे कोयलों को न हटाना चाहिये किन्तु यदि हटाने की आवश्यकता ही हो, तो स्वच्छ जल में धोकर सुखायी गयी कूँचीसे हटाना चाहिये । क्योंकि दूसरे द्रव्यों के मिल जानेसे ओषधियाँ, अपना गुण छोड़ देती हैं । अतः कूड़ा या धूलि आदिको सदा बचाना चाहिये । फिर लोहके पत्रों को चिमटेसे पकड़कर प्रज्वलित भट्टीके मध्य में रखना चाहिये। ज्यों ज्यों लोहा गलता जावे, त्यों त्यों और बढाते जाना चाहिये और गले हुए लौहको ऊर्ध्वमुखवाली अंकुश ( कटोरीयुक्त चम्मच ) से निकाल कर पूर्व स्थापित त्रिफलाक्वाथमें बुझाना चाहिये । शेष त्रिफलाक्वाथ रख लेना चाहिये । और जो लोह इस प्रकार भस्म न हुआ हो, उसे फिर इसी प्रकार पकाना चाहिये । फिर भी जो न मरे, उसे छोड ही देना चाहिये, क्योंकि वह लोह ही न होगा । फिर उस लौहको मजबूत लौहके खरलमें कूट बहुत जल छोड़ धोकर मिट्टी और कोयला साफ कर अग्नि अथवा धूपमें सुखाना चाहिये | फिर उसे लौहकी सिल अथवा काले पत्थरकी सिलपर पीसना चाहिये । ( उपरोक्त धूपमें सुखा लेना ही लोहका “ भानुपाक " कहा जाता है । तथा जो कंद गुहूची आदि ओषधियाँ बतलायी हैं, उनके साथ वैद्य लोग लौहसे षोडशांश अथवा आधा स्वर्णमाक्षिक भी छोड़ते हैं ) ॥ ५२-६५ ॥
स्थालीपाकविधिः ।
अथ कृत्वायोभाण्डे दत्त्वा त्रिफलाम्बुशेषमन्यद्वा । प्रथमं स्थालीपाकं दद्याद् द्रवक्षयात्तदनु ॥ ६६ ॥ गजकर्णपत्र मूलशतावरी भृङ्गकेशराजरसैः । प्राग्वत्स्थालीपाकं कुर्यात्प्रत्येकमेकं वा ॥ ६७ ॥
इसके अनन्तर लोहे की कढाई में शेष त्रिफलाजल व लौह छोड़कर उस समय तक पकाना चाहिये, जबतक द्रव निःशेष हो जावे | फिर हस्तिकर्णपलाशकी जड़, शतावरी, भांगरा व काले भांगराका त्रिफला के मानके अनुसार मिलित क्वाथ बना छोड़कर पकाना चाहिये । अर्थात् ५ पल लौहमें ७ पल ओष
रसायना
एक हाथका गोल गड्ढा खोदना चाहिये, बीच में बराबर रखना चाहिये । तथा उसका मुख कढाह के सदृश गोल बनाना चाहिये । इस गढेके नीचेके आधे भागको वनकण्डे, धानकी भूसी और लकडियाँ भरकर आग लगा देनी चाहिये | ऊपरसे त्रिफलाके क्वाथ तथा भांगरा, नागकेशर, शतावरी, माणकन्द, भिलावाँ तथा एरण्डके पत्र और मूलके स्वरससे भावित कीचड़के समान लौहको लौह या मिट्टीके शराव सम्पुट में बन्द कर रखना चाहिये । ऊपरसे फिर वनकण्डे आदिसे ढककर रातदिन आँच देनी चाहिये । इस प्रकार इन नौ ओषधियों में से प्रत्येकसे एक एक बार अथवा सब मिलाकर ३ या ४ पुट देना चाहिये । प्रतिपुटमं पीसना तथा स्थालपिक करना चाहिये । पीसना इतना चाहिये कि कपड़ेसे छन जाय । फिर उसे महीन कपड़े से छानना चाहिये । यदि केवड़े रजके सदृश महीन हो जावे, तो समझना चाहिये कि उत्तम लौहभस्म वन गयी । पर यह ध्यान रहे कि जिस पुरुष के लिये लौह बनाना है, उसकी प्रकृति व रोगके अनुसार कही हुई. औषधियाँ भी अलग कर देनी चाहियें और अनुक्त भी मिला देनी चाहियें । वैद्यको इसके लिये विशेष ध्यान देना चाहिये ॥ ६८-७६ ॥