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(२८२)
[योनिव्यापद
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पिप्पल्यः शृङ्गवरं च मरिच केशरं तथा।
माषौ द्वौ च तथा गौरसर्षपो दधियोजितौ । घृतेन सह पातव्यं वन्ध्यापि लभते सुतम् ॥२८॥ पुण्यापीती द्रुतापन्नगर्भायाः पुत्रकारको ॥३४॥ पुष्यनक्षत्रमें उखाड़ी चक्रांग (जिसके ऊपर लाल बिंदु कानकान् राजतान्वापि लौहान्पुरुषकानमून् । होते हैं उस ) लक्ष्मणाकी जड़को कन्यासे पिसाकर दूध व घीमें
ध्माताभिवर्णान्पयसो दध्नो वाप्युदकस्य वा । मिलाकर ऋतुकालमें पीनेसे गर्भ धारण होता है। इसी प्रकार |
क्षिप्त्वाञ्जली पिबेत्पुष्ये गर्भे पुत्रत्वकारकान् ॥३५॥ असगन्धके क्वाथसे सिद्ध दूधमें घी मिलाकर पीनेसे ऋतुस्नाता| स्त्री गर्भ धारण करती है। तथा छोटी पीपल, सोंठ, काली मिर्च,!
गौओंके ठहरनेके स्थानमें उत्पन्न बरगदकी पूर्व तथा उत्तरव नागकेशरके चूर्णको घीमें मिलाकर पीनेसे वन्ध्या भी गर्भ की डालके २ टिम्हुने, २ उडद, सफेद सरसों दहीमें मिलाधारण करती है ॥२६-२८॥
कर पुष्य नक्षत्रमें पीनेसे शीघ्र गर्भ धारण करनेवाली बीके गर्भसे
पुत्र ही होता है। इसीप्रकार सोने, चांदी अथवा लोहेके पुरु. स्वर्णादिभस्मयोगः।
षकी मूर्ति बना आममें लाल कर दूध, दही अथवा जलकी स्वर्णस्य रूप्यकस्य च चूर्णे ताम्रस्य चाज्यसंमिश्रे ।
अञ्जली (१६ तो० ) में बुझाकर पुष्य नक्षत्रमें पानसे गर्भसे पुत्र पीते शुद्ध क्षेत्रे भेषजयोगाद्भवेद्गर्भः ॥२९॥
ही होता है ॥३४॥ ३५॥ सोना और चांदी तथा ताम्रकी भस्ममें घी मिलाकर रजोध.
फलघृतम् । मके बाद सेवन करनेसे गर्भ रहता है ॥ २९ ॥
मजिष्ठा मधुकं कुष्ठं त्रिफला शर्करा बला । नियतगर्भचिकित्सा।
मेदा पयस्या काकोली मूलं चैवाश्वगन्धजम् ॥३७॥ कृत्वा शुद्धौ स्नानं
अजमोदा हरिद्रे द्वे हिॉकं कटुरोहिणी । विलय दिवसान्तरे ततः प्रातः।
उत्पलं कुमुदं द्राक्षा काकोल्यो चन्दनद्वयम् ॥३७॥ स्नात्वा द्विजाय दत्त्वा
एतेषां कार्षिकैर्भागेघृतप्रस्थं विपाचयेत् । सम्पूज्य तथैव लोकनाथेशम् ॥ ३०॥
शतावरीरसक्षीरं घृताइयं चतुर्गुणम् ॥ ३८ ॥ श्वेतबलानिकयष्टी कर्ष कर्ष पलं सितायाश्च ।
सर्पिरेतन्नरः पीत्वा नित्यं स्त्रीषु वृषायते । पिष्टवैकवर्णजीवितवत्साया गोस्तु दुग्धेन ॥ ३१ ॥
पुत्राजनयते नारी मेधाढ्यान् प्रियदर्शनान् ।।३९।। समधिकघृतेन पीतं नात्र दिने देयमन्त्रमन्यच्च ।
या चैव स्थिरगर्भा स्याद्या वा जनयते मृतम् ।
अल्पायुषं वा जनयेद्या च कन्यां प्रसूयते ॥४०॥ क्षुधिते सदुग्धमन्नं दद्यादा पुरुषसन्निधेस्तस्याः ३२॥ समदिवसे शुभयोगे दक्षिणपावलम्बिनी धीरा।
योनिदोषे रजोदोषे परिस्रावे च शस्यते ।
प्रजावर्धनमायुष्यं सर्वग्रहनिवारणम् ॥४१॥ त्यक्तरूयन्तरसङ्गप्रहृष्टमनसोऽतिवृद्धधातोश्च ।
नाम्ना फलघृतं ह्येतदश्विभ्यां परिकीर्तितम् । पुरुषस्य सङ्गमात्राल्लभते पुत्रं ततो नियतम् ॥३३॥
अनुक्तं लक्ष्मणामूलं क्षिपन्त्यत्र चिकित्सकाः॥४२॥ रजःशुद्धिके दिन स्नान कर लघन करना चाहिये । दूसरे दिन | प्रातःकाल स्नानकर भक्तिपूर्वक ब्राह्मण तथा शंकरजीका पूजन-1
जीवद्वत्सैकवर्णाया घृतमत्र प्रशस्यते । कर सफेद खरेटीकी जड़ १ तो० मौरेठी १ तो• व शक्कर |
आरण्यगोमयेनापि वह्निज्वाला प्रदीयते ॥४३॥ तो. एकमें पीस मिलाकर एक रङ्गवाली बछडा सहित गायक मजीठ, मौरेठी, कूठ, त्रिफला, शक्कर, खरेटी, मेदा, क्षीरदूधमें घी मिलाकर ओषधिके साथ पीना चाहिये। इस दिन काकोली, काकोली, असगन्ध, अजमोद, हल्दी, दारुहल्दी, दूसरा अन्न नहीं खाना चाहिये । भूख लगनेपर दूध भात देना हींग, कुटकी, नीलोफर, कमल, मुनक्का, दोनों काकोली, तथा चाहिये जबतक परुषसंयोग न होजाय की दोनों चन्दन प्रत्येकका १ तोला कल्क छोड़कर १२८ तोला घी, पथ्य रखना चाहिये। सम दिन अर्थात् छठे, आठवें या शतावरीका रस २५८ तोला, दूध २५८ तोला मिलाकर पकाना दशवें, या बारहवें दिन शुभ योगमें दहिनी ओरको जिस पुरुषने चाहिये। इसघृतके पीनेसे पुरुष स्त्रीगमनमें अधिक समर्थ होता है। दूसरी स्त्रीका संग नहीं किया, तथा जिसका मन प्रसन्न हो रहा।
*श्वेतकण्टकारिकायोगः-“ सिंह्यास्तु श्वेतपुष्पाया मुलं है, धातु बढ़े हुए हैं उसके सङ्गमात्रसे निःसन्देह पुत्रको प्राप्त
पुष्यसमुद्धृतम् । जलपिष्टमृतुनाता नस्यादर्भ तु विन्दति ॥" करती है ॥ ३०-३३ ॥
|ऋतुस्नाता स्त्रीको पुष्य नक्षत्रमें उखड़ी सफेद फूलकी करी. पुत्रोत्पादका योगाः।
की जड़को जलमें पीसकर नस्य लेनी चाहिये । इससे गर्भ गोष्ठजातवटस्य प्रागुत्तरशाखजे शुभे शृङ्गे। रहता है। ( यह योग बहुत प्रसिद्ध तथा लाभदायक है ।)