Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 300
________________ भाषाटीकोपेतः । धिकारः ] तूतिया ४ तो ० सहिजनके बीज २०, काजी १॥ सेरमें मिलाकर ताम्रके बर्तन में रखना चाहिये । इसके सिञ्चनसे पुराने पिल्ल दूर होते हैं तथा उपदेह, आंसू, खुजली और सूजन नष्ट होती है ॥ २३१ ॥ २३२ ॥ पक्ष्मोपरोधचिकित्सा । याप्यः पक्ष्मोपरोधस्तु रोमोद्धरणलेखनैः । वर्त्मन्युपचितं लेख्यं स्राव्यमुत्कृिष्टशोणितम्॥२३३॥ प्रवृद्धान्तर्मुखं रोम सहिष्णोरुद्धरेच्छनैः । संदंशेनोद्धरेद् दृष्टयां पक्ष्मरोमाणि बुद्धिमान् ॥ २३४ रक्षन्नक्षि दहेत्पक्ष्म तप्तहेमशलाकया । पक्ष्मरोगे पुननैवं कदाचिद्रोमसंभवः ॥ २३५ ॥ पक्ष्मोपरोध याप्य होता है, इसमें रोमों का उद्धरण तथा लेखन करते रहना चाहिये । विनी में इकट्ठा रक्त खुरचना चाहिये तथा बहुत बढ़ा रक्त निकाल देना चाहिये । अन्तर्मुख बढे रोवें धीरे धीरे चिमटी से सहिष्णु पुरुषके उखाड़ देने चाहिये | आंख को बचाते हुए गरम सोनेकी सलाईसे जला देना चाहिये । इससे फिर रोम नहीं जमते ॥ २३३-२३५ ॥ लेख्यभेद्य रोगाः । उत्सङ्गिनी बहुलकर्दमवर्त्मनी च श्यावं च यच्च पठितं त्विह बद्धव । निं च पोथकयुतं त्विह वर्त्म यच्च कुम्भीकिनी च सह शर्करयावलेख्याः ।। २३६ श्लेष्मोपनाहलगणौ च बिसं च भेद्यो प्रथिश्च यः क्रमिकृतोऽञ्जननामिका च ॥ २३७ ॥ उत्संगिनी, बहुलवर्त्म, कर्दम, श्याव, बद्धवर्त्म, क्लिन्न, पोथकी, कुम्भीकिनी, व शर्करा, इनका अवलेखन करना चाहिये । तथा श्लेष्मरोग, उपनाह, विसग्रंथि, क्रिमिग्रंथि और अञ्जननामिकाका भेदन करना चाहिये ॥ २३६ ॥ २३७ ॥ (२७३ ) कफानाहको बार बार घी व सेंधानमक के चूर्णसे लेप करना अथवा मण्डलाग्र से पछने लगाने चाहिये । तथा परवल व आंवले के काथसे आश्च्योतन विधि हितकर है तथा देवना और लहसुन के रससे पोथकी नष्ट होती है । आनाहपिड़िकाका स्वेदन कर तिरछा भेदन करना फिर अग्निसे जलाना चाहिये । अर्शोवर्त्म तथा शुष्कार्श और अर्बुदको तीक्ष्ण मण्डलाप्रसे धीरेसे मूलसे काढ | देना चाहिये । सेंधानमक, छोटी पीपल, कूठ, शालपर्णी, पृष्ठपर्णी, मुद्रपर्णी, माषपर्णी और त्रिफलाके रस तथा सुरामण्ड बनायी बत्ती श्लेष्माभिष्यन्द, पोथकी, वत्र्मोपरोध क्रिमिप्रथि और कुकूणकको नष्ट करती है ॥ २३८-२४२ ॥ इति नेत्ररोगाधिकारः समाप्तः । अथ शिरोरोगाधिकारः । कफानाहादिचिकित्सा | घृतसैन्धवचूर्णेन कफानाहं पुनः पुनः । विलिम्पेन्मण्डलाग्रेण प्रच्छयेद्वा समन्ततः ॥ २३८॥ पटोलामलकक्वाथैराश्च्योतनविधिर्हितः । फणिजकर सोनस्य रसैः पोथकिनाशनः ॥ २३९ ॥ आनाहपिडकां स्विन्नां तिर्यग्भित्त्वाभिना दहेत् । अर्शस्तथा वर्त्म नाम्ना शुष्कार्शोऽर्बुदमेव च २४०॥ मण्डलाग्रेण तीक्ष्णेन मूले छिन्द्याद्भिषक् शनैः । सिन्धूत्थपिप्पली कुष्ठपर्णिनीत्रिफलारसैः ॥ २४९ ॥ सुरामण्डेन वर्तिः स्याच्छ्लेष्माभिष्यन्दनाशिनी । वमपरोधे पोथक्यां क्रिमिमन्थी कुकूणके || २४२|| वातिक चिकित्सा वातिके शिरसो रोगे स्नेहस्वेदान्सनावनान् । पानान्नमुपहारांश्च कुर्याद्वातामयापहान् ॥ १ ॥ कुष्ठमेरण्डतैलं च लेपात्काञ्जिकपेषितम् । शिरोऽर्ति नाशयत्याशु पुष्पं वा मुचुकुन्दजम् ॥२॥ पञ्चमूलीशृतं क्षीरं नस्ये दद्याच्छिरोगदे । वातज शिरोरोगमें नस्य, स्नेहन, स्वेदन, पान, अन्नभोजन आदि वातनाशक करने चाहियें । कूठ व एरण्डतैल काजी में पीसकर लेप करनेसे अथवा मुचकुंदके फूलका लेप करनेसे शिरोऽर्ति नट होती है । तथा पञ्चमूलसे सिद्ध दूधका नस्य देने से शिरोऽर्ति शान्त होती है ॥ १ ॥ २ ॥ शिरोवस्तिः । आशिरो व्यायतं चर्म कृत्वाष्टांगुलमुच्छ्रितम् ॥ ३॥ तेनावेष्टय शिरोऽधस्तान्माषकल्केन लेपयेत् । निश्चलस्योपविष्टस्य तैलैरुष्णैः प्रपूरयेत् ॥ ४ ॥ धारयेदारुजः शान्तेर्यामं यामार्धमेव वा । शिरोबस्तिर्जयत्येष शिरोरोगं मरुद्भवम् ॥ ५ ॥ हनुमन्याक्षिकर्णार्तिमर्दितं मूर्धकम्पनम् । तैलेनापूर्य मूर्धानं पञ्चमात्राशतानि च ॥ ६ ॥ तिष्ठेच्छ्लेष्माणि पित्तेऽष्टौ दश वाते शिरोगदी । एष एव विधिः कार्यस्तथा कर्णाक्षिपूरणे ॥ ७ ॥ शिरके बराबर लम्बा तथा आठ अंगुल ऊँचा चर्म लेकर शिरमें लपेटना चाहिये | नीचे उड़दके कल्कका लेप करना चाहिये । फिर सीधा बैठाल कर गुनगुने तैलसे भर देना चाहिये और जबतक पीड़ा शांत न हो, तबतक १॥ घण्टेसे ३ घण्टे क

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