Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press

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Page 298
________________ धिकारः] भाषाटीकोपेतः। (२७१) त्रिफला, लाख, लोहचूर्ण व सेंधानमकको भांगरेके रसमें पीसकर उपनाहचिकित्सा । गुटिकाजन बनाना चाहिये । यह अर्म, तिमिर, काच, खुजली भित्त्वोपनाहं कफजं पिप्पलीमधुसन्धवैः। • फूली, अर्जुन, अजका और समस्त नेत्ररोगोंको नष्ट | विलिम्पेन्मण्डलाण प्रच्छयेद्वा समन्ततः॥ २१०॥ करता है ॥ २०१-२०३॥ कफज-उपनाहका भेदन कर छोटी पीपल, शहद व सेंधापुष्पादिरसक्रिया। नमकका लेप करना चाहिये । अथवा मण्डलाग्रशस्त्रसे लगाना चाहिये ॥२१॥ पुष्पाख्यताय॑जसितोदधिफेनशङ्खसिन्धूत्थगैरिकशिलामरिचैः समांशैः। __ फलबीजवतिः। पिष्टैश्च माक्षिकरसेन रसक्रियेयं पथ्याक्षधात्रीफलमध्यबीजैहन्त्यमकाचतिमिरार्जुनवर्मरोगान् ॥२०४॥ स्त्रिद्वयेकभागैर्विदधीत वर्तिम् ।। तयाञ्जयेदश्रुमतिप्रगाढपुष्पकासीस, रसौत, मिश्री, समुद्रफेन, शंख, सेंधानमक, गेरू, मनशिल व काली मिर्च समान भाग ले शहदमें घोटकर __ मक्ष्णोहरेत्कष्टमपि प्रकोपम् ॥ २११ ।। बनायी गयी रसक्रिया अर्म, काच, तिमिर, अर्जुन और वर्म- आँवलेकी मींगी १ भाग, बहेड़ाकी मांगी २ भाग, हरोंकी रोगोंको नष्ट करती है ॥ २०४॥ मींगी ३ भाग पीसकर बत्ती बनानी चाहिये । इससे अजन लगानेसे गाढे आँसुओंका आना आदि नेत्र कष्ट नष्ट होता शुक्तिकाचिकित्सा । है ॥२११॥ कौम्भस्य सर्पिषः पानविरेकालेपसेचनैः। त्रिफलायोगाः। स्वादुशीतैः प्रशमयेच्छुक्तिकामजनस्ततः ।। २०५॥ स्रावेषु त्रिफलाकाथं यथादोषं प्रयोजयेत् । प्रवालमुक्तावदर्यशङखस्फाटिकचन्दनम। क्षौद्रेणाज्येन पिप्पल्या मिश्रं विध्येच्छिरां तथा२१२ सुवर्णरजतं क्षौद्रमजन शुक्तिकापहम् ॥ २०६ ॥ त्रिफलामूत्रकासीससैन्धवैः सरसाजनैः । दश वर्षका पुराना घृत पिलाकर तथा विरेचन, लेप व सेक | रसक्रिया क्रिमिग्रन्थी भिन्ने स्याप्रतिसारणम्।।२१३ और मीठे, ठण्डे पदार्थ तथा अजनसे शुक्तिका शान्त करनी| चाहिये । तथा मूंगा, मोती, लहसुनिया, शंख, स्फटिक, चन्दन, सावों में दोषोंके अनुसार त्रिफला क्वाथका प्रयोग शहद, घी, सोना, चाँदी और शहदका अञ्जन शुक्तिकाको नष्ट करता तथा तथा छोटी पीपल मिलाकर करना चाहिये । तथा शिराव्यध है ॥ २०५ ॥२०६॥ करना चाहिये । क्रिमिग्रन्थिका भेदन कर त्रिफला, गोमूत्र, कासीस, सेंधानमक व रसौतकी रसक्रिया कर लगाना अर्जुनचिकित्सा। चाहिये ॥२१२॥२१३॥ शङ्खः क्षोद्रेण संयुक्तः कतकः सैन्धवेन वा।। ___ अञ्चननामिकाचिकित्सा । सितयाणवफेनो वा पृथगञ्जनमर्जुने ॥ २०७ । । स्विन्नां भित्त्वा विनिष्पीड्य भिन्नामञ्जननामिकाम् । पैत्तं विधिमशेषेण कुर्यादर्जुनशान्तये ॥२०८ ॥ शिलैलानतसिन्धूत्थः सक्षौद्रेःप्रतिसारयेत् ॥२१४॥ अर्जनमें शंखको पीसकर शहद के साथ अथवा निर्मलीको रसाजनमधुभ्यां च भिन्नां वा शस्त्रकर्मवित् । पीसकर सेंधानमकके साथ अथवा समुद्रफेनको मिश्रीके साथ प्रतिसार्या जनयुज्यादुष्णेदर्दीपशिखोद्भवैः ॥२१५॥ नेत्रमें लगाना चाहिये । तथा समग्र पेत्तिक विधि अर्जुनमें करनी चाहिये ॥२०७॥ २०८॥ स्वेदयेद् घृष्टयाङ्गुल्या हरेद्रक्तं जलौकसा। रोचनाक्षारतुत्थानि पिप्पल्यः क्षौद्रमेव च ॥२१६॥ पिष्टिकाचिकित्सा। प्रतिसारणमेकैकं भिन्नेन गण इष्यते । वैदेही श्वेतमारचं सैन्धवं नागरं समम्। । अञ्जननामिकाका स्वेदन, भेदन कर शुद्ध होनेपर मन:शिला, मातुलुङ्गरसःपिष्टमञ्जनं पिष्टिकापहम् ॥२०९॥ इलायची, तगर, व सेंधानमकके चूर्णको शहद मिलाकर लगाना छोटी पीपल, सहिजनके बीज, सेंधानमक व सोंठ समान भाग चाहिये । तथा अञ्जननामिका फूट जानेपर रसौंत और ले बिजौरे निम्बूके रसमें पीसकर बनाया पर्छने गया अजन पिटि-शहद लगाकर गरम दीपशिखाका अञ्जन लगाना चाहिये । काको नष्ट करता है ॥ २०९॥ और अंगुलीको गदोरी पर घिसकर लगाना चाहिये। तथा

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