Book Title: Chakradutt
Author(s): Jagannathsharma Bajpayee Pandit
Publisher: Lakshmi Vyenkateshwar Steam Press
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(२७६)
चक्रदत्तः।
[ शिरोरोगा
___ अपामार्गतैलम् ।
दशमूलप्रयोगः। अपामार्गफलव्योषनिशाक्षारकरामठैः।। दशमूलीकषायं तु सर्पिःसैन्धवसंयुतम् । सविडङ्गं शृतं मूत्रे तैलं नस्यं क्रिमि जयेत् ॥३५॥ नस्यमर्धावभेदन्नं सूर्यावर्तशिरोतिनुत् ॥ ४१ ॥ अपामार्गके बीज, त्रिकटु, हल्दी, क्षार, हिंगु व वायविडङ्गके |
दशमूलके क्वाथका घी व संधानमक मिलाकर नस्य लेनेसे गोमूत्रस सिद्ध तेलक नस्य दनेसे क्रिमियाँको नष्ट |अर्धावभेद, सूर्यावर्त और शिरदर्द रोग नष्ट होते हैं ॥४१ ॥ करता है ॥३५॥
अन्ये प्रयोगा। __नागरादियोगी।
शिरीषमूलकफलैरवपीडं च योजयेत् । नागरं सगुडं विश्वं पिप्पली वा ससैन्धवा।
अवपीडो हितो वा स्याद्वचापिप्पलिभिः शृतः॥४२ भुजस्तम्भादिरोगेषु सर्वेपूर्ध्वगदेषु च ॥ ३६॥
जाङ्गलानि च मांसानि कारयेदुपनाहनम् । गुडके सहित सोंठ, अथवा सोंठ व छोटी पीपल व सेंधानम-| तेनास्य शाम्यति व्याधिः सूर्यावर्तः सुदारुणः । कके साथ बनाये गये नस्यका भुजस्तम्भादि रोगों तथा शिरोरो
एष एव विधिः कृत्स्नः कार्यश्वार्धावभेदके ॥४३ ॥ गोंमें प्रयोग करना चाहिये ॥ ३६॥
शारिवोत्पलकुष्ठानि मधुकं चाम्लषितम् । सूर्यावर्तचिकित्सा ।
सर्पिस्तैलयुतो लेपः सूर्यावर्तार्धभेदयोः ॥४४ ॥ सूर्यावर्ते विधातव्यं नस्यकर्मादि भेषजम् ।
सिरस और मूलीके बीजोंका नस्य अथवा बच और पाययेत्सगुडं सर्पिघृतपूरांश्च भक्षयेत् ॥ ३७॥
| पीपलके क्वाथका नस्य देना चाहिये । तथा जांगल मांसको सूर्यावर्ते शिरावेधो नावनं क्षीरसर्पिषा ।
| गरमकर बांधना चाहिये । इससे सूर्यावर्तरोग शान्त होता
है । यही विधि अविभेदकमें करना चाहिये । अथवा हितः क्षीरघताभ्यासस्ताभ्यां चैव विरेचनम् । शारिखा. नीलोफर. कुठ व मौरेठीको काजीमें पीस धी व क्षीरपिष्टस्तिलैः स्वेदो जीवनीयैश्च शस्यते ॥३८॥
। ।। २८ ।। तैलमें मिलाकर सूर्यावर्त व अर्धावभेदकमें लेप करना सूर्यावर्तमें नस्य आदि देना चाहिये, गुड़के साथ घी पिलाना | चाहिये ॥ ४२-४४॥ चाहिये, घृतसे पूर्ण पदार्थ खाना चाहिये । तथा शिरावेध करना चाहिये और दूध व घीसे नस्य लेना चाहिये । दूध और
शर्करोदकयोगः। किा सेवन तथा इन्हींके साथ विरेचन, और दूधमें पीसे| पिबेत्सशर्करं क्षीरं नीरं वा नारिकेलजम् । तिलोंसे स्वेदन तथा जीवनीयगणके प्रयोग हितकर होते सुशीतं वापि पानीयं सर्पिर्वा नस्ततस्तयोः॥४५॥ हैं ॥३७॥३८॥
सूर्यावर्त व अ‘वभेदकमें शक्करके साथ दूध अथवा
नारियलका जल अथवा केवल ठण्ढा जल घीका नस्य लेना कुङ्कुमनस्यम् ।
चाहिये ॥४५॥ सर्शकरं कुङ्कुममाज्यमृष्टं नस्य विधेयं पवनासृगुत्थे ।
अनन्तवातचिकित्सा। भ्रूशङ्खकर्णाक्षिशिरोऽर्धशूले
अनन्तवाते कर्तव्यः सूर्यावर्तहितो विधिः । दिनाभिवृद्धिप्रभवे च रोगे ॥ ३९ ॥ शिरावेधश्च कर्तव्योऽनन्तवातप्रशान्तये ॥ ४६ ॥ शक्करके साथ केशर घीमें मिलाकर वातरक्त जन्य भ्रशंख
आहारश्च विधातव्यो वातपित्तविनाशनः । कर्ण, अक्षि व शिरके अर्धभागके शूल तथा दिनमें बढ़नेवाले मधुमस्तुकसंयावहविष्पूर्हितः क्रमः ॥ ४७ ॥ शूलमें नस्य लेना हितकर है ॥ ३९॥
अनन्तवातमें सूर्यावर्तकी विधि करनी चाहिये । तथा
शिराव्यध भी करना चाहिये । और वातपित्तनाशक आहार कृतमालघृतम्।
करना चाहिये । तथा शहद, दहीके तोड़, दलिया व धीके कृतमालपल्लवरस खरमजरिकल्कांसद्धनवनीतम्। प्रयोग हितकर हैं ॥४६ ॥ ४७ ॥ नस्येन जयति नियतं सूर्यावर्त सुदुर्वारम् ॥४०॥
शंखकचिकित्सा। अमलतासके पत्तोंके रस तथा अपामार्गके कल्कके साथ पकाया मक्खन नस्य लेनेसे कठिन सूर्यावर्तको नष्ट करता | सूर्यावर्ते हितं यत्तच्छङ्खके स्वेदवर्जितम् । है ॥ ४०॥
क्षीरसर्पिः प्रशंसन्ति नस्तःपानं च शङ्खके ॥४८॥

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